Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 2, श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच।
कुतस्तवा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वय॑मकीर्तिकरमर्जुन॥2॥

श्रीभगवान्-उवाच-परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहा; कुत:-कहाँ से; त्वा-तुमको; कश्मलम्-मोह, अज्ञान; इदम्-यह; विषमे इस संकटकाल में; समुपस्थितम्-उत्पन्न हुआ; अनार्य-अशिष्ट जन; जुष्टम्-सद्-आचरण योग्य; अस्वय॑म्-उच्च लोकों की ओर न ले जाने वाला; अकीर्तिकरम्-अपयश का कारण; अर्जुन-अर्जुन।

Hindi translation : परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहाः मेरे प्रिय अर्जुन! इस संकट की घड़ी में तुम्हारे भीतर यह विमोह कैसे उत्पन्न हुआ? यह सम्माननीय लोगों के अनुकूल नहीं है। इससे उच्च लोकों की प्राप्ति नहीं होती अपितु अपयश प्राप्त होता है।

शीर्षक: आर्य: एक सभ्य और परिपक्व मानव का प्रतीक

उपशीर्षक: वैदिक ग्रंथों में ‘आर्य’ शब्द का महत्व और उसकी व्याख्या

प्रस्तावना:
हमारे पवित्र ग्रंथों में ‘आर्य’ शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में किया गया है। यह किसी जाति या प्रजाति का वाचक नहीं, बल्कि एक उच्च मानवीय गुणों से युक्त व्यक्ति का प्रतीक है। आइए इस शब्द के गहन अर्थ और उसके महत्व को समझें।

1. ‘आर्य’ शब्द की परिभाषा और महत्व

1.1 मनु स्मृति में ‘आर्य’ की व्याख्या

मनु स्मृति, जो हमारे प्राचीन धर्मशास्त्रों में से एक है, ‘आर्य’ शब्द को एक विशिष्ट रूप से परिभाषित करती है। इसके अनुसार:

  • ‘आर्य’ एक परिपक्व व्यक्ति है
  • यह सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है
  • यह शब्द मानवीय गुणों की परिपूर्णता को दर्शाता है

1.2 ‘आर्यन’ और ‘भद्र पुरुष’ की समानता

‘आर्यन’ शब्द का प्रयोग ‘भद्र पुरुष’ के समान किया जाता है। यह संबोधन:

  • सर्वकल्याण की भावना को प्रकट करता है
  • समाज के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्ति को संदर्भित करता है
  • सामाजिक उत्थान के लिए प्रयासरत व्यक्ति का वाचक है

2. वैदिक धर्म ग्रंथों का उद्देश्य

वैदिक धर्म ग्रंथों का मुख्य लक्ष्य मानव को ‘आर्य’ बनाना है। इसके लिए:

  • मानवीय गुणों का विकास
  • आध्यात्मिक उन्नति
  • सामाजिक कर्तव्यों का पालन
  • नैतिक मूल्यों का अभ्यास

इन सभी पहलुओं पर ध्यान देने का निर्देश दिया गया है।

3. भगवद्गीता में ‘आर्य’ की अवधारणा

3.1 अर्जुन की मनोदशा और श्रीकृष्ण का उपदेश

भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को ‘आर्य’ के गुणों को धारण करने का उपदेश देते हैं:

  • अर्जुन की वर्तमान मानसिक स्थिति ‘आर्य’ के आदर्शों के विपरीत है
  • श्रीकृष्ण उसे समझाते हैं कि कैसे कठिन परिस्थितियों में भी ‘आर्य’ बना रहा जा सकता है

3.2 ‘भगवान की दिव्य वाणी’ का आरंभ

भगवद्गीता का वास्तविक आरंभ यहीं से होता है:

  • श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान प्राप्त करने की प्रेरणा देते हैं
  • वे उसे समझाते हैं कि भ्रम की स्थिति में रहना अनुचित है
  • मिथ्या-मोह के परिणामों से होने वाली हानि के बारे में बताते हैं

4. आत्मज्ञान की खोज

4.1 व्याकुलता से ज्ञान की ओर

श्रीकृष्ण अर्जुन को और अधिक व्याकुल करने का प्रयास करते हैं:

  • व्याकुलता से दुख की अनुभूति होती है
  • यह आत्मा की वास्तविक स्थिति नहीं है
  • असंतोष की भावना ज्ञान की खोज में प्रेरक बन सकती है

4.2 संदेह का निवारण और ज्ञान प्राप्ति

संदेह का उचित समाधान गहन ज्ञान प्राप्त करने में सहायक होता है:

  • भगवान कभी-कभी मनुष्य को कठिनाई में डालते हैं
  • इससे व्यक्ति ज्ञान की खोज करने को विवश होता है
  • संदेह के पूर्ण निवारण से ज्ञान की उच्च अवस्था प्राप्त होती है

5. ‘आर्य’ बनने की प्रक्रिया

‘आर्य’ बनने की प्रक्रिया एक सतत प्रयास है। इसमें शामिल हैं:

  1. आत्मचिंतन
  2. नैतिक मूल्यों का पालन
  3. समाज सेवा
  4. आध्यात्मिक साधना
  5. ज्ञान का निरंतर अर्जन

‘आर्य’ के गुण

गुणविवरण
सत्यनिष्ठासत्य का पालन और असत्य का त्याग
करुणादूसरों के प्रति दया और सहानुभूति
शौर्यसाहस और वीरता
विद्याज्ञान और बुद्धिमत्ता
त्यागस्वार्थ का त्याग और परोपकार
धैर्यकठिनाइयों में धीरज रखना
क्षमादूसरों की भूल को माफ करना

निष्कर्ष:
‘आर्य’ शब्द हमारे प्राचीन ग्रंथों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह किसी जाति या वर्ग का सूचक न होकर, एक उच्च मानवीय गुणों से युक्त व्यक्ति का प्रतीक है। वैदिक धर्म ग्रंथों का उद्देश्य हर मनुष्य को इन गुणों से संपन्न करना है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को इन्हीं आदर्शों का पालन करने का उपदेश देते हैं। ‘आर्य’ बनने की प्रक्रिया एक निरंतर यात्रा है, जिसमें आत्मज्ञान, नैतिकता, और समाज सेवा शामिल हैं। यह हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए कि हम इन उच्च मानवीय गुणों को अपनाएं और एक सच्चे अर्थों में ‘आर्य’ बनें।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button