Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 2, श्लोक 59

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥59॥

विषयाः-इन्द्रिय विषय; विनिवर्तन्ते-रोकना; निराहारस्य स्वयं को दूर रखने का अभ्यास; देहिनः-देहधारी जीव के लिए; रस-वर्जम-भोग का त्याग करना; रस:-भोग विलास; अपि यद्यपि; अस्य-उसका; परम-सर्वोत्तम; दृष्टा–अनुभव होने पर; निवर्तते वह समाप्त हो जाता है।

Hindi translation: यद्यपि देहधारी जीव इन्द्रियों के विषयों से अपने को कितना दूर रखे लेकिन इन्द्रिय विषयों को भोगने की लालसा बनी रहती है फिर भी जो लोग भगवान को जान लेते हैं, उनकी लालसाएँ समाप्त हो जाती हैं।

कामनाओं का उदात्तीकरण: आध्यात्मिक मार्ग की ओर

प्रस्तावना

मनुष्य के जीवन में कामनाओं का एक महत्वपूर्ण स्थान है। हम सभी किसी न किसी वस्तु या अनुभव की चाह रखते हैं। लेकिन क्या ये कामनाएँ हमारे आध्यात्मिक विकास में बाधक हैं? या फिर इन्हें किसी उच्च लक्ष्य की ओर मोड़ा जा सकता है? आइए इस विषय पर गहराई से विचार करें।

अस्थायी विरक्ति: एक भ्रामक अवस्था

उपवास और रोग का प्रभाव

जब कोई व्यक्ति उपवास रखता है या बीमार पड़ जाता है, तो उसकी इंद्रियों की तृप्ति की इच्छा कम हो जाती है। यह एक प्रकार की विरक्ति है, लेकिन यह अस्थायी होती है। क्यों?

  • उपवास समाप्त होते ही भूख फिर से जाग जाती है।
  • रोग दूर होने पर शरीर की मांगें पुनः बढ़ जाती हैं।
  • मन में कामनाओं के बीज अभी भी मौजूद रहते हैं।

बलपूर्वक संयम: एक अपूर्ण समाधान

कई लोग अपनी इंद्रियों को जबरदस्ती नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। लेकिन यह भी एक अस्थायी समाधान है। क्योंकि:

  1. आंतरिक लालसा की ज्वाला शांत नहीं होती।
  2. दबी हुई इच्छाएँ किसी न किसी रूप में फिर से उभर आती हैं।
  3. यह मानसिक तनाव और कुंठा का कारण बन सकता है।

कामनाओं की जड़: आत्मा की प्रकृति

हमारी कामनाओं का मूल स्रोत क्या है? यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है।

आत्मा की दिव्य प्रकृति

  • आत्मा भगवान का अंश है।
  • इसकी मूल प्रकृति दिव्य सुख की प्राप्ति है।
  • जब तक यह सुख नहीं मिलता, आत्मा अतृप्त रहती है।

निरंतर खोज

आत्मा की यह अतृप्ति ही हमें निरंतर किसी न किसी सुख की खोज में लगाए रखती है। हम इसे विभिन्न रूपों में देखते हैं:

  1. भौतिक सुख की चाह
  2. मानसिक संतुष्टि की खोज
  3. आध्यात्मिक शांति की तलाश

भगवद्भक्ति: कामनाओं का उदात्तीकरण

तैत्तिरीयोपनिषद् का संदेश

तैत्तिरीयोपनिषद् में एक महत्वपूर्ण श्लोक है:

रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्धवाऽऽनन्दी भवति।

(तैत्तिरीयोपनिषद्-2.7)

इसका अर्थ है: “भगवान सत्-चित्-आनंद हैं। जब आत्मा भगवान को पा लेती है, तब वह आनंदमयी हो जाती है।”

भक्ति का प्रभाव

जब कोई व्यक्ति भगवान की भक्ति में लीन हो जाता है, तो:

  1. उसे दिव्य प्रेमरस की अनुभूति होती है।
  2. यह वह सुख है जिसके लिए आत्मा अनंत जन्मों से तरसती रही थी।
  3. सांसारिक विषय-भोगों के प्रति स्वाभाविक विरक्ति उत्पन्न होती है।

भगवद्गीता का दृष्टिकोण

भगवद्गीता कामनाओं के दमन का उपदेश नहीं देती। बल्कि, वह एक सुंदर मार्ग दिखाती है:

  1. कामनाओं को भगवान की ओर निर्देशित करना।
  2. इच्छाओं का उदात्तीकरण करना।
  3. भक्ति के माध्यम से आंतरिक परिवर्तन लाना।

संत रामकृष्ण परमहंस का कथन

संत रामकृष्ण परमहंस ने इस सिद्धांत को बहुत सुंदर ढंग से व्यक्त किया है:

“भक्ति परम सत्ता के प्रति दिव्य प्रेम है, जिसके प्राप्त होने पर निकृष्ट भाव स्वतः समाप्त हो जाते हैं।”

व्यावहारिक उपाय: कामनाओं का उदात्तीकरण कैसे करें?

  1. आत्म-चिंतन: अपनी इच्छाओं के मूल को समझें।
  2. ध्यान और योग: मन को शांत और केंद्रित करने का अभ्यास करें।
  3. सेवा भाव: दूसरों की मदद करने में आनंद खोजें।
  4. सत्संग: अच्छे लोगों की संगति में रहें और आध्यात्मिक विचारों का आदान-प्रदान करें।
  5. भक्ति का अभ्यास: भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण विकसित करें।

निष्कर्ष

कामनाओं का दमन न तो संभव है और न ही वांछनीय। हमें चाहिए कि हम अपनी इच्छाओं को समझें और उन्हें एक उच्च लक्ष्य की ओर मोड़ें। भगवद्भक्ति इस मार्ग पर एक शक्तिशाली साधन है। यह हमें वह दिव्य सुख प्रदान करती है जिसकी खोज में हमारी आत्मा लगी हुई है। इस प्रकार, हम अपने जीवन को अधिक साર्थक और आनंदमय बना सकते हैं।

सारांश तालिका

विषयअस्थायी विरक्तिभगवद्भक्ति द्वारा उदात्तीकरण
स्थायित्वअल्पकालिकदीर्घकालिक
मूल कारणबाहरी परिस्थितियाँआंतरिक परिवर्तन
प्रभावकुंठा और तनावशांति और आनंद
परिणामकामनाओं का पुनरुद्भवस्वाभाविक विरक्ति
आध्यात्मिक विकाससीमितव्यापक

इस प्रकार, हम देख सकते हैं कि कामनाओं का उदात्तीकरण न केवल हमारे व्यक्तिगत विकास के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह हमें एक अधिक संतुलित और आनंदमय जीवन जीने में भी मदद करता है।

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