भगवद गीता: अध्याय 2, श्लोक 7

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥7॥
कार्पण्य-दोष-कायरता का दोष; उपहत-ग्रस्त; स्वभावः-प्रकृति, पृच्छामि में पूछ रहा हूँ; त्वाम्-तुमसे; धर्म-कर्त्तव्य; सम्मूढ-व्याकुल; चेताः-हृदय में; यत्-जो; श्रेयः-श्रेष्ठ; स्यात्-हो; निश्चितम् निश्चयपूर्वक; ब्रूहि-कहो; तत्-वह; मे-मुझको; शिष्यः-शिष्य; ते तुम्हारा; अहम्-मैं; शाधि-कृपया उपदेश दीजिये; माम्-मुझको; त्वाम्-तुम्हारा; प्रपन्नम् शरणागत।
Hindi translation: मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया हूँ और गहन चिन्ता में डूब कर कायरता दिखा रहा हूँ। मैं आपका शिष्य हूँ और आपके शरणागत हूँ। कृपया मुझे निश्चय ही यह उपदेश दें कि मेरा हित किसमें है।
भगवद्गीता में गुरु-शिष्य परंपरा का महत्व
भगवद्गीता हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है जो जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहन ज्ञान प्रदान करता है। इसमें गुरु-शिष्य संबंध का विशेष महत्व दर्शाया गया है। आइए इस विषय को विस्तार से समझें।
अर्जुन का श्रीकृष्ण को गुरु के रूप में स्वीकार करना
कार्पण्यदोष और आत्मसमर्पण
भगवद्गीता के प्रारंभ में एक महत्वपूर्ण क्षण आता है जब अर्जुन श्रीकृष्ण को अपना गुरु बनाने की प्रार्थना करता है। वह स्वीकार करता है कि उस पर ‘कार्पण्यदोष’ हावी हो गया है, अर्थात उसका आचरण कायरों जैसा हो गया है। इस स्थिति में वह श्रीकृष्ण से धर्म के पथ पर चलने का मार्गदर्शन मांगता है।
गुरु की आवश्यकता का महत्व
वैदिक ग्रंथों में गुरु के माध्यम से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने पर बल दिया गया है। मुण्डकोपनिषद में कहा गया है:
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।।
अर्थात, परम सत्य को जानने के लिए ऐसे गुरु की खोज करनी चाहिए जो धर्मग्रंथों का ज्ञाता हो और परब्रह्म में स्थित हो।
गुरु-शिष्य परंपरा का महत्व
श्रीमद्भागवतम् का दृष्टिकोण
श्रीमद्भागवतम् में भी गुरु की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है:
तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्।
शाब्दे पर च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।।
यह श्लोक बताता है कि सत्य की खोज करने वालों को ऐसे गुरु के प्रति समर्पित होना चाहिए जो वैदिक ज्ञान में पारंगत हो और भगवान के शरणागत हो।
रामचरितमानस का संदेश
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है:
गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई।
जौं बिरंचि संकर सम होई।
यह पंक्तियां दर्शाती हैं कि गुरु के बिना कोई भी इस भवसागर को पार नहीं कर सकता, चाहे वह ब्रह्मा या शंकर के समान ही क्यों न हो।
श्रीकृष्ण का गुरु के रूप में महत्व
गीता में श्रीकृष्ण का उपदेश
श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता में गुरु की महत्ता बताई है:
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥
इस श्लोक में वे कहते हैं कि सत्य को जानने के लिए गुरु की शरण में जाना, उनकी सेवा करना और उनसे ज्ञान सीखना आवश्यक है।
श्रीकृष्ण का स्वयं गुरु की शरण में जाना
श्रीकृष्ण ने स्वयं भी गुरु सांदीपनी से शिक्षा प्राप्त की थी। यह उनकी लीला थी जिसके द्वारा उन्होंने गुरु के महत्व को दर्शाया।
निष्कर्ष
भगवद्गीता में गुरु-शिष्य परंपरा का महत्व स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। यह हमें सिखाता है कि आध्यात्मिक प्रगति के लिए एक सच्चे गुरु का मार्गदर्शन अत्यंत आवश्यक है। अर्जुन का श्रीकृष्ण को गुरु के रूप में स्वीकार करना इस परंपरा का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जो आज भी हमारे लिए प्रेरणादायक है।
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