Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 3, श्लोक 1-2

अर्जुन उवाच।
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥1॥
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥2॥


अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; ज्यायसी-श्रेष्ठ; चेत्–यदि; कर्मण-कर्मफल से; ते आप द्वारा; मता-मानना; बुद्धि-बुद्धि; जनार्दन जीवों का पालन करने वाले, श्रीकृष्ण; तत्-तब; किम-क्यों; कर्मणि-कर्मः घोर–भयंकर; मम्-मुझे; नियोजयसि-लगाते हो; केशव-केशी नामक राक्षस का वध करने वाले, श्रीकृष्ण। व्यामिश्रेण-तुम्हारे अनेकार्थक शब्दों का; इव-मानो; वाक्येन-वचनों से; बुद्धिम् बुद्धि; मोहयसि–मैं मोहित हो रहा हूँ; इव-मानो; मे मेरी; तत्-उस; एकम्-एकमात्र; वद-अवगत कराए; निश्चित्य-निश्चित रूप से; येन-जिससे; श्रेयः-अति श्रेष्ठ, अहम्-मैं; आप्नुयाम्-प्राप्त कर सकू।

Hindi translation: अर्जुन ने कहा! हे जनार्दन, यदि आप बुद्धि को कर्म से श्रेष्ठ मानते हैं तब फिर आप मुझे इस भीषण युद्ध में भाग लेने के लिए क्यों कहते हो? आपके अनेकार्थक उपदेशों से मेरी बुद्धि भ्रमित हो गयी है। कृपया मुझे निश्चित रूप से कोई एक ऐसा मार्ग बताएँ जो मेरे लिए सर्वाधिक लाभदायक हो।

श्रीमद्भगवद्गीता का दूसरा अध्याय: कर्मयोग का मार्ग

प्रस्तावना

श्रीमद्भगवद्गीता हिंदू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। यह न केवल एक धार्मिक पुस्तक है, बल्कि जीवन जीने का एक मार्गदर्शक भी है। गीता के दूसरे अध्याय में, भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मयोग के महत्व के बारे में समझाते हैं। आइए इस अध्याय के मुख्य बिंदुओं पर एक नज़र डालें और समझें कि वे हमारे दैनिक जीवन में कैसे लागू होते हैं।

आत्मा की अमरता

शाश्वत सत्य की खोज

श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि आत्मा अमर है। वे कहते हैं:

“न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥”

अर्थात्, आत्मा न तो जन्म लेती है और न ही मरती है। यह सदा से है और सदा रहेगी। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह नष्ट नहीं होती।

दैनिक जीवन में अनुप्रयोग

इस ज्ञान को समझने से हमें जीवन और मृत्यु के भय से मुक्ति मिलती है। हम अपने कर्तव्यों का पालन बिना किसी भय या चिंता के कर सकते हैं।

कर्मयोग का महत्व

निष्काम कर्म का सिद्धांत

श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मयोग का महत्व समझाते हुए कहते हैं कि मनुष्य को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, लेकिन उसके फल की चिंता किए बिना। यह निष्काम कर्म का सिद्धांत है।

स्थितप्रज्ञ की अवधारणा

श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की विशेषताओं का वर्णन करते हैं। स्थितप्रज्ञ वह है जो सुख-दुःख, लाभ-हानि में समान भाव रखता है।

कर्मयोग का व्यावहारिक पहलू

निम्नलिखित तालिका कर्मयोग के सिद्धांतों को दैनिक जीवन में लागू करने के कुछ तरीके दर्शाती है:

सिद्धांतव्यावहारिक अनुप्रयोग
निष्काम कर्मकाम को पूरी ईमानदारी से करें, लेकिन परिणाम की चिंता न करें
समत्व बुद्धिसफलता और असफलता को समान भाव से स्वीकार करें
कर्तव्य पालनअपने दायित्वों को समझें और उन्हें पूरा करें
आत्मनियंत्रणअपनी इंद्रियों और मन पर नियंत्रण रखें

बुद्धियोग: बुद्धि का योग

निश्चयात्मक बुद्धि का महत्व

श्रीकृष्ण बुद्धियोग की अवधारणा पर जोर देते हैं। यह निश्चयात्मक बुद्धि का उपयोग करके मन को नियंत्रित करने और आध्यात्मिक ज्ञान को बढ़ाने की कला है।

बुद्धियोग के लाभ

  1. मानसिक शांति
  2. बेहतर निर्णय क्षमता
  3. आत्मज्ञान की प्राप्ति
  4. जीवन के प्रति संतुलित दृष्टिकोण

अर्जुन का संदेह और श्रीकृष्ण का स्पष्टीकरण

अर्जुन की दुविधा

अर्जुन श्रीकृष्ण के उपदेशों को विरोधाभासी समझता है। वह सोचता है कि यदि ज्ञान कर्म से श्रेष्ठ है, तो वह युद्ध जैसे कठोर कर्म में क्यों शामिल हो?

श्रीकृष्ण का स्पष्टीकरण

श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि कर्म का त्याग नहीं, बल्कि कर्म के फल की आसक्ति का त्याग करना चाहिए। वे कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार कर्तव्य का पालन करना चाहिए।

निष्कर्ष

गीता का दूसरा अध्याय हमें सिखाता है कि जीवन में संतुलन बनाए रखना महत्वपूर्ण है। हमें अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, लेकिन उनके परिणामों से अनासक्त रहना चाहिए। यह अध्याय हमें आत्मा की अमरता, कर्मयोग के महत्व, और बुद्धियोग की शक्ति के बारे में महत्वपूर्ण सबक देता है।

इन सिद्धांतों को अपने दैनिक जीवन में लागू करके, हम न केवल अपने व्यक्तिगत विकास को बढ़ावा दे सकते हैं, बल्कि समाज के लिए भी एक सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। गीता का यह अध्याय हमें याद दिलाता है कि जीवन एक यात्रा है, और इस यात्रा में हमारा लक्ष्य केवल मंजिल तक पहुंचना नहीं, बल्कि यात्रा के दौरान सीखना और विकसित होना भी है।

अंत में, यह समझना महत्वपूर्ण है कि गीता के उपदेश सार्वभौमिक हैं और समय की कसौटी पर खरे उतरते हैं। चाहे हम किसी भी धर्म या संस्कृति से संबंध रखते हों, इन सिद्धांतों को अपनाकर हम अपने जीवन को और अधिक साર्थक और संतोषजनक बना सकते हैं।

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