भगवद गीता: अध्याय 3, श्लोक 13

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुज्यते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥13॥
यज्ञशिष्ट यज्ञ में अर्पित भोजन के अवशेष; अशिनः-सेवन करने वाले; सन्तः-संत लोग; मुच्यन्ते–मुक्ति पाते हैं; सर्व-सभी प्रकार के; किल्बिशैः-पापों से; भुञ्जते–भोगते हैं; ते-वे; तु–लेकिन; अघम्-घोर पाप; पापा:-पापीजन; ये-जो; पचन्ति-भोजन बनाते हैं; आत्मकारणात्-अपने सुख के लिए।
Hindi translation: आध्यात्मिक मनोवत्ति वाले जो भक्त पहले यज्ञ में अर्पित करने के पश्चात भोजन ग्रहण करते हैं, वे सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो अपनी इन्द्रिय तृप्ति के लिए भोजन बनाते हैं, वे वास्तव में पाप अर्जित करते हैं।
वैदिक परम्परा में भोजन का महत्व और आध्यात्मिक दृष्टिकोण
भारतीय संस्कृति में भोजन को केवल शारीरिक आवश्यकता नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक अनुष्ठान के रूप में देखा जाता है। यह दृष्टिकोण न केवल हमारे खाने के तरीके को प्रभावित करता है, बल्कि हमारे जीवन के प्रति दृष्टिकोण को भी आकार देता है। आइए इस विषय पर गहराई से चर्चा करें।
भोजन का आध्यात्मिक महत्व
वैदिक परंपरा में, भोजन को भगवान के प्रति समर्पण का एक माध्यम माना जाता है। यह विचार कि हम जो कुछ भी खाते हैं, वह पहले भगवान को अर्पित किया जाना चाहिए, हमारे दैनिक जीवन में कृतज्ञता और विनम्रता की भावना लाता है।
भोग और प्रसाद की अवधारणा
भोजन बनाने के बाद, उसका एक हिस्सा भगवान को अर्पित किया जाता है। यह प्रक्रिया ‘भोग लगाना’ कहलाती है। इसके बाद, यह भोजन ‘प्रसाद’ बन जाता है – भगवान का आशीर्वाद।
- भोग: भगवान को अर्पित किया गया भोजन
- प्रसाद: भगवान द्वारा स्वीकृत और आशीर्वादित भोजन
यह प्रथा भोजन को एक साधारण गतिविधि से एक पवित्र अनुष्ठान में बदल देती है।
अन्य धर्मों में समान प्रथाएँ
यह अवधारणा केवल हिंदू धर्म तक ही सीमित नहीं है। अन्य धर्मों में भी इसी तरह की प्रथाएँ पाई जाती हैं:
ईसाई धर्म में परम प्रसाद
ईसाई धर्म में, ‘होली कम्युनियन’ या ‘यूकेरिस्ट’ एक महत्वपूर्ण संस्कार है जहाँ रोटी और मदिरा को पवित्र किया जाता है और फिर विश्वासियों द्वारा ग्रहण किया जाता है।
श्रीकृष्ण का उपदेश
भगवद्गीता में, श्रीकृष्ण ने भोजन के इस आध्यात्मिक पहलू पर प्रकाश डाला है:
“जो भगवान को भोग लगाए बिना भोजन ग्रहण करते हैं, वे पाप अर्जित करते हैं।”
यह कथन हमें याद दिलाता है कि भोजन केवल शारीरिक तृप्ति के लिए नहीं है, बल्कि यह आत्मा के पोषण का भी एक माध्यम है।
शाकाहार बनाम मांसाहार
एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है: क्या मांसाहारी भोजन को भी भगवान को अर्पित किया जा सकता है?
वैदिक दृष्टिकोण
वेदों में, मनुष्यों के लिए शाकाहारी भोजन की अनुशंसा की गई है। इसमें शामिल हैं:
- अन्न
- दालें
- फलियाँ
- शाक-सब्जियाँ
- फल
- दुग्ध उत्पाद
विश्व के महान विचारकों के विचार
संसार भर के कई महान व्यक्तियों ने शाकाहार का समर्थन किया है। उनके कुछ विचार इस प्रकार हैं:
विचारक | उद्धरण |
---|---|
महात्मा बुद्ध | “मानवता को आतंक से बचाने के लिए शिष्यों को मांसाहार का सेवन करने से मना करो।” |
पाइथागोरस | “जब तक मनुष्य पशुओं का संहार करते हैं, वे एक दूसरे की हत्या करेंगे।” |
लियोनार्डो दा विंची | “हमारा शरीर कब्रगाह बन जाता है। मैंने अल्प आयु से ही मांस का सेवन त्याग दिया।” |
अलबर्ट आइंस्टाइन | “शाकाहारी रीति से जीवन निर्वाह समूची मानव जाति के उत्थान पर अति लाभकारी प्रभाव डालेगा।” |
महात्मा गांधी | “आध्यात्मिक उन्नति यह अपेक्षा करती है कि हमें अपनी देह की तृप्ति के लिए अपने से छोटे जीवों की हत्या करना बंद कर देना चाहिए।” |
भोजन का उद्देश्य: आत्म-तृप्ति या सेवा?
श्रीकृष्ण के अनुसार, केवल शाकाहारी होना पर्याप्त नहीं है। भोजन का उद्देश्य भी महत्वपूर्ण है।
आत्म-कारणात्: स्वार्थी उद्देश्य
यदि हम केवल अपनी इंद्रियों की तृप्ति के लिए भोजन करते हैं, तो यह भी एक प्रकार का बंधन है।
भगवान की सेवा के लिए भोजन
जब हम भोजन को पहले भगवान को अर्पित करते हैं और फिर प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं, तो हमारी मनोदशा बदल जाती है:
- शरीर को भगवान की धरोहर के रूप में देखा जाता है।
- भोजन का उद्देश्य शरीर को स्वस्थ रखना और भगवान की सेवा करना हो जाता है।
निष्कर्ष
वैदिक दृष्टिकोण में, भोजन केवल शारीरिक पोषण का स्रोत नहीं है। यह आध्यात्मिक विकास और भगवान से जुड़ने का एक माध्यम है। शाकाहार और भगवान को भोग लगाने की प्रथा न केवल हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है, बल्कि हमारी आत्मा के विकास में भी सहायक है।
यह दृष्टिकोण हमें याद दिलाता है कि जीवन का हर पहलू, यहां तक कि भोजन भी, एक आध्यात्मिक अभ्यास बन सकता है। यह हमें अपने दैनिक जीवन में अधिक जागरूक और कृतज्ञ बनने के लिए प्रेरित करता है।
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