Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 4, श्लोक 20

त्यक्त्वा कर्मफलासर्फ नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥20॥

त्यक्त्वा-त्याग कर; कर्मफल-आसड्.गम्-कमर्फल की आसक्ति; नित्य-सदा; तृप्तः-संतुष्ट; निराश्रयः-किसी पर निर्भर न होना; कर्मणि-कर्म में; अभिप्रवृत्तः-संलग्न रहकर; अपि-वास्तव में; न-नहीं; एव-निश्चय ही; किञ्चित्-कुछ; करोति-करता है; स:-वह मनुष्य।

Hindi translation: अपने कर्मों के फलों की आसक्ति को त्याग कर ऐसे ज्ञानीजन सदा संतुष्ट रहते हैं और बाह्य आश्रयों पर निर्भर नहीं होते। कर्मों में संलग्न रहने पर भी वे वास्तव में कोई कर्म नहीं करते।

कर्म और अकर्म: एक आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य

आज के इस ब्लॉग में हम एक गहन विषय पर चर्चा करेंगे – कर्म और अकर्म का सिद्धांत। यह विषय न केवल हिंदू दर्शन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, बल्कि जीवन जीने की एक कला भी है। आइए इस रहस्यमय विषय को समझने का प्रयास करें।

कर्म और अकर्म: परिभाषा और महत्व

कर्म क्या है?

कर्म शब्द का अर्थ है ‘कार्य’ या ‘क्रिया’। लेकिन आध्यात्मिक संदर्भ में, कर्म का अर्थ केवल शारीरिक क्रिया तक सीमित नहीं है। यह हमारे विचारों, भावनाओं और इरादों को भी शामिल करता है।

अकर्म की अवधारणा

अकर्म का शाब्दिक अर्थ है ‘कर्म का अभाव’। लेकिन यहाँ ‘अकर्म’ का तात्पर्य निष्क्रियता नहीं है। बल्कि, यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ व्यक्ति कर्म करते हुए भी उसके प्रभावों से मुक्त रहता है।

कर्म और अकर्म का वर्गीकरण

बाह्य दृष्टि से कर्मों का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता। कर्म और अकर्म क्या है, यह निर्धारित करना मन का कार्य है।

यह कथन हमें एक महत्वपूर्ण सत्य की ओर इंगित करता है। कर्म और अकर्म का भेद बाहरी क्रियाओं पर नहीं, बल्कि हमारी मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है।

ज्ञानी मनुष्य की मनःस्थिति

ज्ञानी व्यक्ति की विशेषताएँ:

  1. भगवान में तल्लीन रहना
  2. भक्तिपूर्ण एकीकरण से संतुष्ट होना
  3. केवल भगवान को आश्रयदाता मानना
  4. संसार के आश्रयों पर निर्भर न रहना

इस प्रकार की मनःस्थिति में किए गए सभी कर्म ‘अकर्म’ कहलाते हैं।

कर्म और अकर्म: एक पौराणिक कथा

इस जटिल अवधारणा को समझने के लिए, पुराणों में एक सुंदर कथा का वर्णन मिलता है। आइए इस कथा को विस्तार से समझें।

वृंदावन की गोपियों का उपवास

  1. गोपियों ने उपवास रखा
  2. उपवास पूर्ण करने के लिए किसी ऋषि को भोजन खिलाना आवश्यक था
  3. श्रीकृष्ण ने दुर्वासा ऋषि को भोजन खिलाने का सुझाव दिया

यमुना नदी की बाधा

  • नदी का बहाव तेज था
  • कोई नाविक पार कराने को तैयार नहीं हुआ
  • श्रीकृष्ण ने एक अनोखा समाधान सुझाया

श्रीकृष्ण का आश्चर्यजनक समाधान

“तुम नदी से कहो कि यदि श्रीकृष्ण अखण्ड ब्रह्मचारी है तब वह उन्हें रास्ता दे।”

गोपियाँ इस सुझाव पर हँसीं, क्योंकि उनके अनुसार श्रीकृष्ण अखंड ब्रह्मचारी नहीं थे। फिर भी, जब उन्होंने यमुना से ऐसी प्रार्थना की, तो आश्चर्यजनक रूप से नदी ने उन्हें मार्ग दे दिया।

दुर्वासा ऋषि से भेंट

  1. गोपियाँ दुर्वासा के आश्रम पहुँचीं
  2. उन्होंने ऋषि से भोजन ग्रहण करने की प्रार्थना की
  3. दुर्वासा ने अपनी योग शक्ति से सारा भोजन खा लिया

वापसी का रहस्य

दुर्वासा ने गोपियों को एक और आश्चर्यजनक सुझाव दिया:

“यमुना नदी से कहो कि यदि दुर्वासा ने आज केवल दूब के अतिरिक्त कुछ भी ग्रहण न किया हो तब वह उन्हें रास्ता दे”

गोपियाँ फिर हँसीं, क्योंकि उन्होंने दुर्वासा को बहुत भोजन करते देखा था। लेकिन जब उन्होंने यमुना से ऐसी प्रार्थना की, तो नदी ने फिर से रास्ता दे दिया।

कर्म में अकर्म: श्रीकृष्ण का स्पष्टीकरण

श्रीकृष्ण ने इस रहस्य को समझाया:

  1. भगवान और संत बाहरी रूप से लौकिक कर्मों में व्यस्त दिखते हैं
  2. आंतरिक दृष्टि से वे सदैव इंद्रियातीत अवस्था में रहते हैं
  3. सभी प्रकार के कर्म करते हुए भी वे सदा अकर्त्ता माने जाते हैं

श्रीकृष्ण का उदाहरण

  • बाह्य रूप से: गोपियों से प्रेम भाव से मिलते-जुलते थे
  • आंतरिक रूप से: अखंड ब्रह्मचारी थे

दुर्वासा ऋषि का उदाहरण

  • बाह्य रूप से: स्वादिष्ट भोजन खाया
  • आंतरिक दृष्टि से: मन से केवल दूब का स्वाद चखा

कर्म और अकर्म: एक तुलनात्मक विश्लेषण

आइए कर्म और अकर्म के बीच के अंतर को समझने के लिए एक तुलनात्मक तालिका देखें:

विशेषताकर्मअकर्म
बाह्य क्रियासक्रियसक्रिय
आंतरिक स्थितिकर्ता भावसाक्षी भाव
फल की अपेक्षाहोती हैनहीं होती
मानसिक स्थितिराग-द्वेष से प्रभावितसमता में स्थित
आत्म-बोधसीमितविस्तृत

निष्कर्ष: जीवन में कर्म और अकर्म का संतुलन

कर्म और अकर्म का सिद्धांत हमें सिखाता है कि जीवन में सक्रिय रहना और फिर भी आंतरिक शांति बनाए रखना संभव है। यह एक ऐसी कला है जिसे अभ्यास से सीखा जा सकता है।

  1. कर्मों को कर्तव्य भाव से करें, न कि फल की इच्छा से
  2. अपने मन को ईश्वर या उच्च लक्ष्य में केंद्रित रखें
  3. प्रत्येक परिस्थिति में समता का भाव रखें
  4. अपने कर्मों के प्रति सजग रहें, लेकिन उनसे अनासक्त रहें

इस प्रकार, हम अपने दैनिक जीवन में कर्म करते हुए भी अकर्म की स्थिति में रह सकते हैं। यह न केवल हमारे व्यक्तिगत विकास के लिए लाभदायक है, बल्कि समाज के लिए भी कल्याणकारी है।

याद रखें, कर्म में अकर्म की यह अवस्था एक दिन में प्राप्त नहीं होती। यह एक लंबी यात्रा है, जिसमें धैर्य, अभ्यास और आत्म-चिंतन की आवश्यकता होती है। लेकिन जैसे-जैसे हम इस मार्ग पर आगे बढ़ते हैं, हम पाते हैं कि जीवन अधिक सार्थक और आनंदमय बनता जाता है।

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