Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 5, श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच।
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥2॥

श्री-भगवान् उवाच-परम् भगवान् ने कहा; संन्यासः- कर्म का त्यागः कर्मयोगः-भक्ति युक्त कर्म; च-और; निःश्रेयस-करौ–परम् लक्ष्य की ओर ले जाने वाले; उभौ-दोनों; तयोः दोनों में से; तु-लेकिन; कर्म-संन्यासात्-सकाम कर्मों का त्याग कर्मयोगः-भक्ति युक्त कर्म; विशिष्यते-श्रेष्ठ

Hindi translation: परम भगवान ने कहा। कर्म संन्यास और कर्मयोग दोनों मार्ग परम लक्ष्य की ओर ले जाते हैं लेकिन कर्मयोग कर्म संन्यास से श्रेष्ठ है।

कर्मयोग और कर्म संन्यास: श्रीमद्भगवद्गीता का एक गहन विश्लेषण

श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कर्म संन्यास और कर्मयोग की तुलना करते हुए एक अत्यंत गहन श्लोक कहा है। इस श्लोक की गहराई को समझने के लिए, हमें इसे धीरे-धीरे, शब्द-दर-शब्द समझना होगा। आइए, इस विषय पर एक विस्तृत चर्चा करें।

कर्मयोग का महत्व

कर्मयोगी की परिभाषा

कर्मयोगी वह व्यक्ति है जो अपने आध्यात्मिक और सामाजिक दोनों कर्तव्यों का पालन करता है। यह एक ऐसा व्यक्ति है जो:

  1. शारीरिक रूप से अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करता है।
  2. मानसिक रूप से भगवान में अनुरक्त रहता है।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने इस संदर्भ में एक सुंदर दोहा कहा है:

सोचु मन यह कर्म मम सब लखत हरि गुरु प्यारे।

(साधन भक्ति तत्त्व)

इसका अर्थ है: “हे मन, यह सोच कि तुम्हारे सभी कर्मों को भगवान और गुरु देखते हैं।” यही कर्मयोग की मूल साधना है।

कर्मयोग का लाभ

कर्मयोग के अभ्यास से, हम धीरे-धीरे:

  1. शारीरिक चेतना से ऊपर उठते हैं।
  2. आत्मिक चेतना में स्थित होते हैं।

कर्म संन्यास का स्वरूप

कर्म संन्यास किसके लिए उपयुक्त है?

कर्म संन्यास उन पुण्य आत्माओं के लिए उपयुक्त है जो:

  1. पहले से ही उन्नत आध्यात्मिक स्तर पर हैं।
  2. दैहिक स्तर से परे हो चुके हैं।

कर्म संन्यासी की विशेषताएँ

  1. पूर्णतया भगवान में अनुरक्त होते हैं।
  2. सामाजिक दायित्वों का परित्याग कर देते हैं।
  3. पूर्ण रूप से आध्यात्मिक कर्तव्यों के पालन में तल्लीन रहते हैं।

कर्म संन्यास का एक उदाहरण: लक्ष्मण

रामायण में, जब श्रीराम वनवास जाते समय लक्ष्मण से अपने सांसारिक कर्तव्यों का पालन करने के लिए कहते हैं, तब लक्ष्मण कर्म संन्यास की भावना को व्यक्त करते हुए कहते हैं:

मोरे सबइ एक तुम स्वामी।
दीनबन्धु उर अन्तरयामी।।

(रामचरितमानस)

अर्थात्, “हे राम, आप मेरे लिए सब कुछ हैं – स्वामी, पिता, माता, बंधु, भाई, मित्र। मैं केवल आपके प्रति ही अपने कर्तव्यों का पालन करूँगा।”

कर्मयोग बनाम कर्म संन्यास: एक तुलनात्मक अध्ययन

कर्मयोगकर्म संन्यास
सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों कर्तव्यों का पालनकेवल आध्यात्मिक कर्तव्यों का पालन
समय का विभाजन दोनों प्रकार के कर्तव्यों मेंपूरा समय आध्यात्मिक कार्य-कलापों में
सामाजिक दायित्वों से भारग्रस्तसामाजिक दायित्वों से मुक्त
धीमी गति से आध्यात्मिक उन्नतितीव्र गति से आध्यात्मिक उन्नति

श्रीकृष्ण की दृष्टि में कर्मयोग का महत्व

इस श्लोक में, श्रीकृष्ण ने कर्म संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग की प्रशंसा की है। वे अर्जुन को कर्मयोग के मार्ग का अनुसरण करने की सलाह देते हैं। इसके पीछे कुछ महत्वपूर्ण कारण हैं:

  1. सुरक्षित विकल्प: यदि कर्मयोगी का मन आध्यात्मिकता से हट जाता है, तो उसके पास कम से कम अपना लौकिक कार्य करने का विकल्प होता है।
  2. सरल मार्ग: कर्मयोग जन साधारण के लिए अपेक्षाकृत सरल मार्ग है।
  3. संतुलित जीवन: कर्मयोग व्यक्ति को सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन के बीच संतुलन बनाने में मदद करता है।

कर्म संन्यास के खतरे

कर्म संन्यास एक चुनौतीपूर्ण मार्ग है। इसमें कुछ संभावित खतरे हैं:

  1. अधूरा त्याग: यदि कर्म संन्यासी अपने कर्मों का त्याग करने के बाद भी अपना मन पूरी तरह से भगवान में तल्लीन नहीं कर पाता, तो वह एक अधूरी स्थिति में फंस जाता है।
  2. भ्रम की स्थिति: भारत में हजारों ऐसे साधु हैं जिन्हें विरक्ति का भ्रम हुआ और उन्होंने संसार का त्याग कर दिया, लेकिन उनका मन भगवान में अनुरक्त नहीं हो पाया।
  3. नकारात्मक परिणाम: ऐसे लोग न तो आध्यात्मिक मार्ग से प्राप्त होने वाले परम आनंद की अनुभूति कर पाते हैं, और न ही सांसारिक जीवन का आनंद ले पाते हैं।
  4. पतन का खतरा: कुछ मामलों में, ऐसे व्यक्ति विभिन्न प्रकार के पापमय दुष्कर्मों में लिप्त हो जाते हैं।

निष्कर्ष

श्रीकृष्ण की शिक्षा से हम समझ सकते हैं कि कर्मयोग एक संतुलित और सुरक्षित मार्ग है। यह हमें आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है, जबकि हम अपने सामाजिक दायित्वों का भी निर्वहन करते हैं। हालांकि, यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कर्म संन्यास एक उच्च स्तर की साधना है, जिसे केवल योग्य गुरु के मार्गदर्शन में ही अपनाया जाना चाहिए।

अंत में, हमें याद रखना चाहिए कि चाहे हम कर्मयोग का मार्ग चुनें या कर्म संन्यास का, हमारा लक्ष्य एक ही होना चाहिए – भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण और आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति।

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