भगवद गीता: अध्याय 5, श्लोक 13

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥13॥
सर्व-समस्त; कर्माणि-कर्म; मनसा-मन से; संन्यस्य-त्यागकर; आस्ते-रहता है; सुखम्-सुखी; वशी-आत्म-संयमी; नव-द्वारे-नौ द्वार; पुरे–नगर में; देही-देहधारी जीव; न-नहीं; एव–निश्चय ही; कुर्वन-कुछ भी करना; न-नहीं; कारयन्–कारण मानना।
Hindi translation: जो देहधारी जीव आत्मनियंत्रित एवं निरासक्त होते हैं, नौ द्वार वाले भौतिक शरीर में भी वे सुखपूर्वक रहते हैं क्योंकि वे स्वयं को कर्त्ता या किसी कार्य का कारण मानने के विचार से मुक्त होते हैं।
शरीर और आत्मा का अद्भुत संबंध: श्रीकृष्ण की दृष्टि में
श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में शरीर और आत्मा के संबंध को एक अनूठे दृष्टिकोण से समझाया है। उन्होंने मानव शरीर को एक नगर के रूप में चित्रित किया है, जिसमें नौ द्वार हैं और आत्मा उस नगर का राजा है। आइए इस गहन विचार को विस्तार से समझें।
शरीर: नौ द्वारों का नगर
नौ द्वारों का महत्व
श्रीकृष्ण ने शरीर की तुलना नौ द्वारों वाले एक नगर से की है। ये नौ द्वार हैं:
- दो कान
- दो आँखें
- दो नासिका छिद्र
- एक मुख
- एक गुदा
- एक लिंग
इन द्वारों का महत्व यह है कि ये शरीर को बाहरी दुनिया से जोड़ते हैं। हर द्वार का अपना विशिष्ट कार्य है:
- कान: ध्वनि ग्रहण करना
- आँखें: दृश्य जगत को देखना
- नासिका: गंध का अनुभव करना
- मुख: भोजन ग्रहण करना और बोलना
- गुदा और लिंग: मल-मूत्र का त्याग
शरीर का प्रबंधन: एक सरकार की तरह
श्रीकृष्ण ने शरीर के प्रबंधन को एक सरकार के कार्य से तुलना दी है। इस सरकार में निम्नलिखित मंत्रालय हैं:
- अहंकार: व्यक्तित्व और पहचान का निर्माण
- बुद्धि: निर्णय लेने की क्षमता
- मन: विचारों और भावनाओं का केंद्र
- इंद्रियाँ: बाहरी जगत से संपर्क
- प्राणशक्ति: जीवन ऊर्जा का संचालन
मंत्रालय | कार्य |
---|---|
अहंकार | व्यक्तित्व निर्माण |
बुद्धि | निर्णय लेना |
मन | विचार और भावना प्रबंधन |
इंद्रियाँ | बाहरी जगत से संपर्क |
प्राणशक्ति | जीवन ऊर्जा संचालन |
आत्मा: नगर का राजा
आत्मा की भूमिका
श्रीकृष्ण के अनुसार, आत्मा इस शरीर रूपी नगर का राजा है। वह सभी गतिविधियों का साक्षी है, लेकिन उनसे प्रभावित नहीं होता। यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो आत्मा की अमरता और अविनाशीता को दर्शाती है।
साक्षी भाव: अनासक्त दृष्टा
सिद्ध योगी इस साक्षी भाव को अपनाते हैं। वे:
- स्वयं को न तो शरीर और न ही शरीर के स्वामी के रूप में देखते हैं।
- सभी क्रियाओं को भगवान से संबंधित मानते हैं।
- मन से सभी कर्मों का परित्याग करते हैं।
- शरीर में रहते हुए भी उससे अनासक्त रहते हैं।
श्वेताश्वतरोपनिषद् का संदर्भ
श्रीकृष्ण के इस विचार का समर्थन श्वेताश्वतरोपनिषद् में भी मिलता है:
नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायते बहिः।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद्-3:18)
इसका अर्थ है:
“यह शरीर नव द्वारों से निर्मित है। भौतिक अवधारणा के कारण शरीर में रहने वाली आत्मा स्वयं की पहचान इस नगर के साथ करती है। इस शरीर में परमात्मा भी निवास करते हैं जो संसार के सभी प्राणियों के नियंता हैं।”
आत्मा और परमात्मा का संबंध
श्रीकृष्ण के अनुसार, जब आत्मा परमात्मा के साथ अपना संबंध जोड़ती है, तब वह:
- शरीर में रहते हुए भी उससे अछूती रहती है।
- कर्मों से प्रभावित नहीं होती।
- मुक्ति की ओर अग्रसर होती है।
निष्कर्ष: कर्ता कौन है?
श्रीकृष्ण ने यह स्पष्ट किया है कि देहधारी जीवात्मा न तो कर्ता है और न ही किसी कार्य का कारण। यह एक गहन दार्शनिक विचार है जो हमें सोचने पर मजबूर करता है कि वास्तव में कर्म का कर्ता कौन है।
क्या भगवान ही सभी कर्मों के कारण हैं?
यह एक जटिल प्रश्न है जिसका उत्तर भगवद्गीता के अगले श्लोकों में दिया गया है। यह विचार हमें आत्म-चिंतन और आध्यात्मिक जागृति की ओर ले जाता है।
इस प्रकार, श्रीकृष्ण ने शरीर और आत्मा के संबंध को एक अनूठे दृष्टिकोण से समझाया है, जो हमें जीवन के गहन रहस्यों को समझने में मदद करता है।
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