Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 5, श्लोक 22

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥22॥

ये-जो; हि-वास्तव में; संस्पर्शजा:-इन्द्रियों के विषयों के स्पर्श से उत्पन्न; भोगा:-सुख भोग; दुःख-दुख; योनयः-का स्रोत, एव–वास्तव में; ते–वे; आदि-अन्तवन्तः-आदि और अन्तवाले; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; न कभी नहीं; तेषु–उनमें; रमते-आनन्द लेता है; बुधः-बुद्धिमान्।

Hindi translation: इन्द्रिय विषयों के सम्पर्क से उत्पन्न होने वाले सुख यद्यपि सांसारिक मनोदृष्टि वाले लोगों को आनन्द प्रदान करने वाले प्रतीत होते हैं किन्तु वे वास्तव में दुखों के कारण हैं। हे कुन्तीपुत्र! ऐसे सुखों का आदि और अंत है इसलिए ज्ञानी पुरुष इनमें आनन्द नहीं लेते।

लौकिक सुख बनाम दिव्य आनंद: एक तुलनात्मक विश्लेषण

प्रस्तावना

मानव जीवन में सुख और आनंद की खोज एक सार्वभौमिक प्रयास रहा है। हमारे वैदिक ग्रंथ इस विषय पर गहन अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं, विशेष रूप से लौकिक सुख और दिव्य आनंद के बीच के अंतर को समझाते हुए। इस लेख में, हम इन दोनों प्रकार के सुखों की प्रकृति, उनकी सीमाओं और उनके प्रभावों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

लौकिक सुख की प्रकृति

इंद्रियजन्य सुख

इंद्रियों के माध्यम से प्राप्त होने वाला सुख लौकिक सुख का एक प्रमुख रूप है। जब हमारी इंद्रियाँ बाहरी विषयों के संपर्क में आती हैं, तो वे सुख की अनुभूति प्रदान करती हैं।

उदाहरण:

  1. आँखों से सुंदर दृश्य देखना
  2. कानों से मधुर संगीत सुनना
  3. जीभ से स्वादिष्ट भोजन का स्वाद लेना
  4. त्वचा से कोमल स्पर्श महसूस करना
  5. नाक से सुगंधित पुष्प की सुगंध लेना

मानसिक सुख

मन, जो कि छठी इंद्रिय माना जाता है, भी विभिन्न प्रकार के सुखों का अनुभव करता है।

मन द्वारा अनुभव किए जाने वाले सुख के उदाहरण:

  • सम्मान प्राप्त करना
  • प्रशंसा सुनना
  • अनुकूल परिस्थितियाँ
  • सफलता प्राप्त करना
  • लक्ष्य की प्राप्ति

लौकिक सुख की सीमाएँ

हालांकि लौकिक सुख आकर्षक और तत्काल संतोषजनक लग सकते हैं, वे कुछ अंतर्निहित सीमाओं से ग्रस्त हैं जो उन्हें आत्मा को पूर्ण संतुष्टि प्रदान करने से रोकती हैं।

1. सीमितता

लौकिक सुख अपनी प्रकृति में सीमित होते हैं। यह सीमितता अक्सर असंतोष और अधिक पाने की इच्छा को जन्म देती है।

उदाहरण:
एक लखपति व्यक्ति अपनी संपत्ति से संतुष्ट हो सकता है। लेकिन जब वह एक करोड़पति से मिलता है, तो उसमें असंतोष की भावना जाग सकती है। वह सोचने लगता है, “काश मेरे पास भी एक करोड़ रुपये होते, तब मैं और भी ज्यादा सुखी होता।”

2. अस्थायीता

लौकिक सुख क्षणभंगुर होते हैं। वे आते हैं और चले जाते हैं, अक्सर अपने पीछे दुख की अनुभूति छोड़ जाते हैं।

उदाहरण:
मदिरापान का आनंद लेने वाला व्यक्ति रात को तो सुख का अनुभव करता है, लेकिन सुबह उठने पर सिरदर्द और अस्वस्थता महसूस करता है।

3. जड़ता

लौकिक सुख अपनी प्रकृति में जड़ हैं, जिसका अर्थ है कि उनका निरंतर क्षय होता रहता है।

उदाहरण:
एक पुरस्कार विजेता फिल्म देखने पर पहली बार बहुत आनंद आता है। दूसरी बार देखने पर आनंद कम हो जाता है। तीसरी बार देखने का प्रस्ताव आने पर व्यक्ति कह सकता है, “मुझे कोई दंड दे दो, लेकिन यह फिल्म फिर से देखने के लिए मत कहो।”

सम सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम

अर्थशास्त्र में, इस घटना को “सम सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम” के रूप में जाना जाता है। यह नियम बताता है कि जैसे-जैसे हम किसी वस्तु का लगातार उपभोग करते हैं, उससे मिलने वाला संतोष या सुख क्रमशः कम होता जाता है।

नियम का प्रदर्शन:

उपभोग की मात्राप्राप्त सुख (सीमांत उपयोगिता)
पहली इकाई10 इकाई सुख
दूसरी इकाई8 इकाई सुख
तीसरी इकाई6 इकाई सुख
चौथी इकाई4 इकाई सुख
पांचवीं इकाई2 इकाई सुख

इस तालिका से स्पष्ट है कि जैसे-जैसे हम किसी वस्तु का अधिक उपभोग करते हैं, उससे मिलने वाला अतिरिक्त सुख कम होता जाता है।

दिव्य आनंद की श्रेष्ठता

वैदिक दर्शन में, दिव्य आनंद को लौकिक सुख से श्रेष्ठ माना जाता है। यह श्रेष्ठता निम्नलिखित कारणों से है:

1. असीमितता

दिव्य आनंद अपनी प्रकृति में असीम है। यह पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है, जिसमें किसी प्रकार की कमी या अभाव की अनुभूति नहीं होती।

2. शाश्वतता

भगवान का आनंद शाश्वत है। एक बार प्राप्त होने पर, यह सदा के लिए बना रहता है और कभी समाप्त नहीं होता।

3. नवीनता

दिव्य आनंद सदैव नवीन रहता है। इसे ‘सत्-चित्-आनंद’ के रूप में वर्णित किया जाता है, जो इंगित करता है कि यह शाश्वत, चेतन और आनंदमय है।

उदाहरण:
जो व्यक्ति पूरे दिन भगवान का नाम जपता है, वह निरंतर आध्यात्मिक संतुष्टि और आनंद का अनुभव करता है, बिना किसी क्षय या कमी के।

विवेक का महत्व

जब कोई व्यक्ति दिव्य आनंद का अनुभव करना शुरू कर देता है, तो उसका मन स्वाभाविक रूप से लौकिक सुखों से विमुख हो जाता है।

अनुपमा:
जैसे कोई स्वस्थ व्यक्ति स्वादिष्ट मिठाई छोड़कर मिट्टी नहीं खाएगा, उसी प्रकार जो दिव्य आनंद का स्वाद चख लेता है, वह लौकिक सुखों की ओर आकर्षित नहीं होता।

विवेकशील व्यक्ति लौकिक सुखों की सीमाओं को समझ जाता है और अपनी इंद्रियों को उनकी ओर आकर्षित होने से रोकता है।

निष्कर्ष

लौकिक सुख और दिव्य आनंद के बीच का अंतर समझना आध्यात्मिक प्रगति के लिए महत्वपूर्ण है। जबकि लौकिक सुख तात्कालिक संतोष प्रदान कर सकते हैं, वे अपनी सीमितता, अस्थायीता और जड़ता के कारण आत्मा को पूर्ण संतुष्टि नहीं दे सकते। दूसरी ओर, दिव्य आनंद असीम, शाश्वत और सदैव नवीन है।

वैदिक दर्शन हमें सिखाता है कि जीवन का उच्चतम लक्ष्य इस दिव्य आनंद की प्राप्ति है। यह हमें प्रेरित करता है कि हम अपने जीवन में इस परम सत्य की खोज करें और उसे अनुभव करें। चाहे वह ध्यान के माध्यम से हो, भक्ति के माध्यम से हो, या फिर सेवा के माध्यम से, हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम इस दिव्य आनंद को अपने दैनिक जीवन में उतारें और उसके माध्यम से अपने जीवन को अधिक सार्थक और पूर्ण बनाएं।

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