भगवद गीता: अध्याय 1, श्लोक 12

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्ख दध्मौ प्रतापवान् ॥12॥
तस्य-उसका; सन्जनयन्-हेतु; हर्षम्-हर्षः कुरू-वृद्धः-कुरूवंश के वयोवद्ध (भीष्म); पितामहः-पितामह (दादा) सिंह-नादम्-सिंह के समान गर्जना; विनद्य-गर्जना; उच्चैः-उच्च स्वर से; शङ्ख-शंख; दध्मौ–बजाया; प्रताप-वान्–यशस्वी योद्धा।
Hindi translation : तत्पश्चातकुरूवंशकेवयोवृद्धपरमयशस्वीमहायोद्धाभीष्मपितामहनेसिंह-गर्जनाजैसीध्वनिकरनेवालेअपनेशंखकोउच्चस्वरसेबजायाजिसेसुनकरदुर्योधनहर्षितहुआ।
महाभारत के युद्ध पर आधारित ब्लॉग
प्रस्तावना
महाभारत का युद्ध इतिहास का सबसे प्रसिद्ध और भव्य युद्ध था। इस युद्ध में कौरव और पाण्डव दोनों पक्षों के सर्वश्रेष्ठ योद्धा शामिल थे। युद्ध की शुरुआत से ही कई रोचक घटनाएं घटीं, जिनमें से एक थी भीष्म पितामह द्वारा शंखनाद करना।
भीष्म पितामह का शंखनाद
महाभारत के युद्ध के शुरू होने से पहले, भीष्म पितामह ने अपने भतीजे दुर्योधन के भय को समझा। उन्होंने उसके प्रति अपने स्वाभाविक करुणाभाव के कारण उसे प्रसन्न करने के लिए उच्च स्वर में शंखनाद किया।
दुर्योधन की स्थिति
यद्यपि भीष्म पितामह जानते थे कि पाण्डवों की सेना में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण उपस्थित थे, जिससे दुर्योधन किसी भी स्थिति में युद्ध में विजय प्राप्त नहीं कर सकता था। फिर भी, वे अपने भतीजे को यह बताना चाहते थे कि वे युद्ध करने के अपने दायित्व का भली-भांति पालन करेंगे और इस संबंध में किसी भी प्रकार की शिथिलता नहीं दिखाएंगे।
शंखनाद का महत्व
उस समय प्रचलित युद्ध के नियमों के अनुसार शंखनाद द्वारा युद्ध का उद्घाटन किया जाता था। इसलिए, भीष्म पितामह के शंखनाद ने न केवल दुर्योधन को प्रोत्साहित किया, बल्कि युद्ध को औपचारिक रूप से शुरू भी किया।
भीष्म पितामह की भूमिका
भीष्म पितामह महाभारत के युद्ध में कौरव सेना के सर्वोच्च सेनापति थे। उनकी भूमिका और योगदान निम्नलिखित थे:
योद्धा के रूप में भूमिका
- वे एक असाधारण योद्धा थे और उनके द्वारा प्रदर्शित शौर्य और वीरता की सराहना दोनों पक्षों से की गई।
- उन्होंने कई युद्ध कलाओं और युद्ध नीतियों पर अद्वितीय नियंत्रण प्राप्त किया था।
- उनकी उपस्थिति ने कौरव सेना को बहुत बल प्रदान किया।
नैतिक आचरण
- उन्होंने युद्ध के नियमों और आचार संहिता का सख्ती से पालन किया।
- वे युद्ध में अन्याय और अनैतिक आचरण का विरोध करते थे।
- उन्होंने युवा योद्धाओं को युद्धशास्त्र और नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी।
राजनीतिक भूमिका
- वे दुर्योधन के प्रमुख सलाहकारों में से एक थे और उन्हें युद्धनीति बनाने में मदद करते थे।
- उन्होंने कौरव और पाण्डव दोनों पक्षों के बीच शांति स्थापित करने की कई कोशिशें की।
- उनकी उपस्थिति ने कौरवों को एक सशक्त राजनीतिक बल प्रदान किया।
युद्ध के बाद
- युद्ध के अंत में, उन्होंने पाण्डवों की जीत को स्वीकार किया और उन्हें अपना आशीर्वाद दिया।
- उन्होंने युधिष्ठिर को शासन करने के लिए महत्वपूर्ण सलाह दी।
- उनके जीवन और कर्मों से युद्धशास्त्र और नैतिकता के अनेक पाठ सीखे जा सकते हैं।
निष्कर्ष
भीष्म पितामह का शंखनाद न केवल महाभारत के युद्ध की शुरुआत का प्रतीक था, बल्कि यह उनके साहस और दृढ़ संकल्प का भी प्रतीक था। उनकी भूमिका महाभारत के युद्ध में अत्यंत महत्वपूर्ण थी और उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा।
इस ब्लॉग में हमने भीष्म पितामह के शंखनाद और उनकी भूमिका पर विस्तार से चर्चा की है। हम आशा करते हैं कि आपको यह जानकारी उपयोगी लगी होगी और आप महाभारत के इस महान योद्धा के बारे में और अधिक जानने के लिए प्रेरित हुए होंगे।
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