भगवद गीता: अध्याय 1, श्लोक 36-37
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥36॥
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥37॥
निहत्य-मारकर; धार्तराष्ट्रान्-धृतराष्ट्र के पुत्रों को; नः-हमारी; का क्या; प्रीतिः-सुख; स्यात्-होगी; जनार्दन हे जीवों के पालक, श्रीकृष्ण। पापम्-पाप; एव-निश्चय ही; आश्रयेत्-लगेगा; अस्मान्–हमें; हत्वा-मारकर; एतान्–इन सबको; आततायिन:-आततायियों को; तस्मात्-अतः; न-कभी नहीं; अर्हाः-योग्य; वयम्-हम; हन्तुम् मारने के लिए; धृतराष्ट्रान्–धृतराष्ट्र के पुत्रों को; स्व-बान्धवान् मित्रों सहित; सव-जनम्-कुटुम्बियों को; हि-निश्चय ही; कथम्-कैसे; हत्वा-मारकर; सुखिनः-सुखी; स्याम-हम होंगे; माधाव-योगमाया के स्वामी, श्रीकृष्ण।
Hindi translation : हे समस्त जीवों के पालक! धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करके हमें क्या सुख प्राप्त होगा? यद्यपि वे सब अत्याचारी हैं फिर भी यदि हम उनका वध करते हैं तब निश्चय ही उन्हें मारने का हमें पाप लगेगा। इसलिए अपने चचेरे भाइयों, धृतराष्ट्र के पुत्रों और मित्रों सहित अपने स्वजनों का वध करना हमारे लिए किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। हे माधव! इस प्रकार अपने वंशजों का वध कर हम सुख की आशा कैसे कर सकते हैं?
धर्मयुद्ध का दुविधा: अर्जुन का आत्मसंघर्ष
प्रस्तावना
महाभारत का युद्ध केवल एक साधारण युद्ध नहीं था। यह धर्म और अधर्म के बीच का संघर्ष था, जिसमें अर्जुन जैसे महान योद्धा को भी नैतिक दुविधा का सामना करना पड़ा। इस ब्लॉग में हम अर्जुन के इस आंतरिक संघर्ष को समझने का प्रयास करेंगे और यह जानने की कोशिश करेंगे कि क्यों उन्होंने अपने स्वजनों के विरुद्ध युद्ध करने से इनकार कर दिया था।
अर्जुन का दृष्टिकोण
यद्यपि की पुनरावृत्ति
अर्जुन ने अपने विचार व्यक्त करते हुए दो बार ‘यद्यपि’ शब्द का प्रयोग किया। यह उनके मन में चल रहे द्वंद्व को दर्शाता है। वे कहते हैं:
“यद्यपि मैं उन्हें मार भी देता हूँ तथापि ऐसी विजय प्राप्त करने से मुझे क्या सुख प्राप्त होगा?”
इस कथन से स्पष्ट होता है कि अर्जुन को युद्ध में विजय प्राप्त करने में कोई आनंद नहीं दिखाई दे रहा था। उनके लिए यह एक ऐसी जीत थी जो उन्हें अंदर से खोखला कर देगी।
अहिंसा का महत्व
अर्जुन के विचारों को समझने के लिए हमें वैदिक धर्म में अहिंसा के महत्व को समझना होगा।
- वेदों का संदेश: “मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि” अर्थात ‘किसी भी प्राणी को मत मारो’।
- अहिंसा परम धर्म: वेदों में अहिंसा को सर्वोच्च धर्म माना गया है।
- अपवाद स्वरूप परिस्थितियाँ: कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर हिंसा को पाप माना जाता है।
अर्जुन इन्हीं सिद्धांतों से प्रेरित होकर अपने कुटुंबियों के वध को पापपूर्ण कार्य मान रहे थे।
युद्ध और धर्म का संबंध
सामान्य परिस्थितियों में युद्ध
अधिकतर परिस्थितियों में युद्ध को अधर्म माना जाता है। इसके पीछे कुछ कारण हैं:
- प्राणहानि: युद्ध में बड़े पैमाने पर जीवन का नुकसान होता है।
- विनाश: युद्ध से न केवल मानव जीवन बल्कि संपत्ति और संसाधनों का भी विनाश होता है।
- मानसिक प्रभाव: युद्ध में भाग लेने वाले व्यक्तियों को अक्सर पश्चाताप और अपराध बोध का सामना करना पड़ता है।
धर्मयुद्ध की अवधारणा
हालांकि, कुछ परिस्थितियों में युद्ध को धर्म के रूप में देखा जाता है। इसे धर्मयुद्ध कहा जाता है। धर्मयुद्ध की कुछ विशेषताएं हैं:
- न्याय के लिए लड़ाई: जब अन्याय और अधर्म का विरोध करने के लिए युद्ध आवश्यक हो जाता है।
- आत्मरक्षा: जब अपने या दूसरों के जीवन और अधिकारों की रक्षा के लिए युद्ध अनिवार्य हो।
- धर्म की रक्षा: जब धार्मिक मूल्यों और सिद्धांतों की रक्षा के लिए युद्ध करना पड़े।
आतताई और उनसे निपटने का अधिकार
आतताई कौन हैं?
विशिष्ट स्मृति (श्लोक 3:19) में छह प्रकार के आतातायियों का उल्लेख किया गया है। इन्हें निम्नलिखित तालिका में दर्शाया गया है:
क्रम संख्या | आतताई का प्रकार | विवरण |
---|---|---|
1 | अग्निदा | किसी के घर को आग से जलाने वाला |
2 | विषदा | किसी के भोजन में विष मिलाने वाला |
3 | शस्त्रपाणि | किसी की हत्या करने वाला |
4 | धनापहारक | किसी का धन लूटने वाला |
5 | क्षेत्रदारापहारी | पराई स्त्री का अपहरण करने वाला |
6 | राज्यापहारी | दूसरे का राज्य या भूमि हड़पने वाला |
आतातायियों से निपटने का अधिकार
धर्मशास्त्रों के अनुसार, इन आतातायियों से अपनी रक्षा करने और आवश्यकता पड़ने पर इनका वध करने का अधिकार सभी को है। मनु स्मृति (श्लोक 8:351) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ऐसे अत्याचारियों का वध करने पर व्यक्ति को पाप नहीं लगता।
अर्जुन की दुविधा का विश्लेषण
परिस्थितियों की जटिलता
अर्जुन की स्थिति बेहद जटिल थी। एक ओर उनके सामने धर्म की रक्षा का प्रश्न था, तो दूसरी ओर अपने ही परिवार के लोगों के विरुद्ध युद्ध करने की चुनौती। इस परिस्थिति में निर्णय लेना किसी के लिए भी आसान नहीं होता।
नैतिक मूल्यों का टकराव
अर्जुन के मन में दो प्रमुख नैतिक मूल्यों का टकराव हो रहा था:
- कर्तव्य पालन: एक क्षत्रिय और योद्धा के रूप में उनका कर्तव्य था कि वे अधर्म के विरुद्ध लड़ें।
- अहिंसा का पालन: वैदिक धर्म में अहिंसा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है, जिसका पालन करना अर्जुन का नैतिक दायित्व था।
भावनात्मक पहलू
अर्जुन की दुविधा का एक महत्वपूर्ण पहलू भावनात्मक था। उन्हें अपने गुरुजनों, रिश्तेदारों और मित्रों के विरुद्ध लड़ना था। यह उनके लिए मानसिक रूप से बेहद कठिन था।
श्रीकृष्ण का उपदेश
गीता का संदेश
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देकर उनकी दुविधा का समाधान किया। गीता के मुख्य संदेश इस प्रकार हैं:
- कर्म की महत्ता: कर्म को फल की आसक्ति के बिना करना चाहिए।
- स्वधर्म का पालन: प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।
- योग की शिक्षा: मन को संतुलित रखने के लिए योग का अभ्यास करना चाहिए।
धर्मयुद्ध की आवश्यकता
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि कुरुक्षेत्र का युद्ध एक धर्मयुद्ध है। इसके पीछे कुछ कारण थे:
- अधर्म का विरोध: कौरवों ने अनेक अधार्मिक कार्य किए थे जिनका विरोध आवश्यक था।
- राज्य की प्राप्ति: पांडवों का राज्य अन्यायपूर्वक छीना गया था, जिसे वापस पाना उनका अधिकार था।
- धर्म की स्थापना: समाज में धर्म की पुनः स्थापना के लिए यह युद्ध आवश्यक था।
निष्कर्ष
अर्जुन की दुविधा हमें यह सिखाती है कि जीवन में कभी-कभी हमें बेहद कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं। ऐसी परिस्थितियों में हमें अपने विवेक का उपयोग करते हुए, धर्म और नैतिकता के मार्ग पर चलना चाहिए। धर्मयुद्ध की अवधारणा हमें यह समझाती है कि कभी-कभी अधर्म का विरोध करने के लिए कठोर कदम उठाना भी आवश्यक हो जाता है।
महाभारत और गीता का संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना हजारों साल पहले था। यह हमें सिखाता है कि जीवन में संतुलन बनाए रखना, अपने कर्तव्यों का पालन करना और धर्म के मार्ग पर चलना अत्यंत महत्वपूर्ण है। अर्जुन की तरह, हमें भी अपने जीवन में आने वाली चुनौतियों का सामना करते हुए, सही और गलत के बीच विवेकपूर्ण निर्णय लेने की कला सीखनी चाहिए।
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