Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 5, श्लोक 14

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कमर्फलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥14॥

न–नहीं; कर्तृव्यम्-कर्त्तापन का बोध; न न तो; कर्माणि-कर्मों के; लोकस्य–लोगों के; सृजति उत्पन्न करता है। प्रभुः-भगवान; न न तो; कर्म-फल-कर्मों के फल; संयोगम् सम्बन्ध; स्वभावः-जीव की प्रकृति; तु-लेकिन; प्रवर्तते-कार्य करते हैं।

Hindi translation: न तो कर्त्तापन का बोध और न ही कर्मों की प्रवृत्ति भगवान से प्राप्त होती है तथा न ही वे कर्मों के फल का सृजन करते हैं। यह सब प्रकृत्ति के गुणों से सृजित होते हैं।

प्रभु और मानव: कर्म की गहन समझ

भारतीय दर्शन में कर्म का सिद्धांत एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह सिद्धांत न केवल हमारे वर्तमान जीवन को प्रभावित करता है, बल्कि हमारे भविष्य और मोक्ष की यात्रा को भी निर्धारित करता है। आइए इस गहन विषय पर विस्तार से चर्चा करें।

प्रभु: सर्वशक्तिमान नियंत्रक

प्रभु की परिभाषा

‘प्रभु’ शब्द का प्रयोग भगवान के लिए किया गया है, जो सम्पूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी हैं। वे सर्वशक्तिमान हैं और समस्त सृष्टि का नियंत्रण करते हैं। यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो हमें प्रभु की सर्वव्यापकता और सर्वशक्तिमत्ता का बोध कराती है।

प्रभु की भूमिका

प्रभु की भूमिका को निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है:

  1. ब्रह्मांड का संचालन: वे समस्त ब्रह्मांड की गतिविधियों का संचालन करते हैं।
  2. अकर्ता भाव: संचालन करते हुए भी वे अकर्ता रहते हैं।
  3. निष्पक्ष दृष्टा: वे हमारे कर्मों के न तो संचालक हैं और न ही निर्णायक।

मानव कर्म और प्रभु

कर्म का निर्णय

एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि प्रभु हमारे कर्मों के अच्छे या बुरे होने का निर्णय नहीं करते। यह एक गहन दार्शनिक विचार है जो हमें अपने कर्मों के प्रति जागरूक और उत्तरदायी बनाता है।

प्रभु की भूमिका का महत्व

यदि प्रभु हमारे कर्मों के संचालक होते, तो धार्मिक ग्रंथों में शुभ और अशुभ कर्मों के विस्तृत वर्णन की आवश्यकता न होती। इस स्थिति में, धार्मिक शिक्षाएँ बहुत सरल हो जातीं:

“हे आत्मा! मैं तुम्हारे सभी कार्यों का संचालक हूँ, इसलिए तुम्हें यह समझने की आवश्यकता नहीं है कि शुभ और अशुभ कर्म क्या है। मैं तुमसे अपनी इच्छानुसार कर्म कराऊँगा।”

कर्तापन का बोध

कर्तापन का स्रोत

प्रभु हमारे कर्तापन के बोध के लिए उत्तरदायी नहीं हैं। यह एक महत्वपूर्ण बिंदु है जो हमें अपने कर्मों और उनके परिणामों के प्रति जागरूक बनाता है।

अज्ञान का प्रभाव

वास्तव में, आत्मा स्वयं ही अज्ञान के कारण कर्तापन का अभिमान कर लेती है। यह अज्ञान ही है जो हमें हमारे वास्तविक स्वरूप से दूर रखता है।

अज्ञान से मुक्ति

यदि आत्मा इस अज्ञान को दूर करने का निश्चय कर ले, तो प्रभु अपनी कृपा से इस प्रयास में सहायता करते हैं। यह एक सुंदर संदेश है जो हमें आत्म-जागरूकता और आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रेरित करता है।

प्रकृति के तीन गुण और कर्म

शरीर की संरचना

शरीर प्रकृति के तीन गुणों से निर्मित है:

  1. सत्व
  2. रज
  3. तम

गुणों का प्रभाव

सभी कर्म इन्हीं तीन गुणों के अंतर्गत निष्पादित होते हैं। यह समझ हमें प्रकृति और पुरुष (आत्मा) के बीच के अंतर को समझने में मदद करती है।

गुणप्रभावकर्म का स्वभाव
सत्वप्रकाश, ज्ञानशुद्ध, सात्विक कर्म
रजक्रिया, आवेगकर्म में प्रवृत्ति
तमअज्ञान, आलस्यनिष्क्रियता, बुरे कर्म

आत्मा का भ्रम

अज्ञानता के कारण आत्मा स्वयं को शरीर मानकर कर्मों के कर्तापन के भ्रम में उलझ जाती है। यह भ्रम ही दुःख और बंधन का कारण बनता है।

आत्म-जागृति की यात्रा

कर्तापन के बोध का त्याग

कर्तापन के बोध को त्यागने का उत्तरदायित्व जीवात्मा का होता है। यह एक चुनौतीपूर्ण लेकिन आवश्यक यात्रा है जो हमें मुक्ति की ओर ले जाती है।

आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया

  1. स्व-अध्ययन: अपने वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयास।
  2. ध्यान: मन की एकाग्रता और आत्म-चिंतन।
  3. कर्मयोग: निष्काम भाव से कर्म करना।
  4. भक्तियोग: प्रभु के प्रति समर्पण और प्रेम।

निष्कर्ष: कर्म और मुक्ति

इस गहन विचार-विमर्श से हम निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल सकते हैं:

  1. प्रभु सर्वशक्तिमान हैं, लेकिन वे हमारे कर्मों के निर्णायक नहीं हैं।
  2. हम अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी हैं।
  3. अज्ञान ही कर्तापन के भ्रम का कारण है।
  4. आत्म-जागृति और प्रभु की कृपा से इस अज्ञान को दूर किया जा सकता है।
  5. प्रकृति के तीन गुण हमारे कर्मों को प्रभावित करते हैं।
  6. कर्तापन के बोध का त्याग मुक्ति की ओर ले जाता है।

यह समझ हमें न केवल अपने जीवन में बल्कि समाज में भी एक सकारात्मक बदलाव लाने में मदद कर सकती है। हम अपने कर्मों के प्रति अधिक जागरूक और उत्तरदायी बन सकते हैं, साथ ही दूसरों के प्रति अधिक करुणा और समझ विकसित कर सकते हैं।

अंत में, यह कहा जा सकता है कि प्रभु और मानव के बीच का संबंध एक गहन रहस्य है। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने कर्मों के माध्यम से इस रहस्य को समझने का प्रयास करें और अपने जीवन को एक उच्च लक्ष्य की ओर ले जाएँ। यह न केवल हमारे व्यक्तिगत विकास के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि समग्र मानवता के कल्याण के लिए भी आवश्यक है।

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