Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 3, श्लोक 28

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥28॥

तत्ववित्-सत्य को जानने वाला; तु–लेकिन; महाबाहो-विशाल भुजाओं वाला; गुण-कर्म-गुणों और कर्मों से; विभागयोः-भेद; गुणा:-मन और इन्द्रियों आदि के रूप में प्रकृति के तीन गुण;गुणेषु–इन्द्रिय विषयों के बोध के रूप में प्रकृति के गुण; वर्तन्ते-लगे रहते हैं; इति–इस प्रकार; मत्वा-जानकर; न-कभी नहीं; सज्जते-आसक्त होते हैं।

Hindi translation: हे महाबाहु अर्जुन! तत्त्वज्ञानी आत्मा की पहचान गुणों और कर्मों से भिन्न करते हैं वे समझते हैं कि ‘इन्द्रिय, मन, आदि के रूप में केवल गुण ही हैं जो इन्द्रिय विषयों, (गुणेषु) में संचालित होते हैं और इसलिए वे उनमें नहीं फंसते।

अहंकार और आत्मज्ञान: भगवद्गीता का अमूल्य संदेश

प्रस्तावना

भगवद्गीता हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो जीवन के गहन रहस्यों और आध्यात्मिक ज्ञान का खजाना है। इस ग्रंथ में कई ऐसे श्लोक हैं जो मनुष्य के अंतर्मन को छूते हैं और उसे आत्मचिंतन की ओर प्रेरित करते हैं। आज हम एक ऐसे ही श्लोक पर विचार करेंगे जो अहंकार और आत्मज्ञान के बीच के संबंध को स्पष्ट करता है।

अहंकार: एक भ्रामक दृष्टिकोण

अहंकार का अर्थ और प्रभाव

अहंकार शब्द संस्कृत भाषा से आया है, जिसका अर्थ है ‘मैं’ या ‘स्वयं’ की भावना। यह वह मानसिक स्थिति है जहाँ व्यक्ति अपने आप को सर्वोपरि और सर्वशक्तिमान समझने लगता है। भगवद्गीता में इस मनोदशा को ‘अहंकार विमूढात्मा’ कहा गया है, जिसका तात्पर्य है ऐसा व्यक्ति जो अहंकार से इतना मोहित हो गया है कि उसने अपनी वास्तविक पहचान को भुला दिया है।

शरीर और आत्मा का भ्रम

अहंकार का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह है कि व्यक्ति अपने शरीर को ही अपना सब कुछ मान लेता है। वह भूल जाता है कि शरीर तो एक माध्यम मात्र है, और वास्तविक ‘मैं’ तो आत्मा है जो अजर, अमर और अविनाशी है। यह भ्रम उसे सांसारिक मोह-माया में उलझा देता है और उसके आध्यात्मिक विकास में बाधा बनता है।

तत्त्ववित्तु: सत्य के दर्शक

आत्मज्ञान की महत्ता

भगवद्गीता में ‘तत्त्ववित्तु’ शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए किया गया है जो सत्य को जानते हैं। ये वे लोग हैं जो अहंकार के जाल से मुक्त होकर अपनी वास्तविक पहचान को पहचान लेते हैं। वे समझ जाते हैं कि वे शरीर नहीं, बल्कि आत्मा हैं जो शरीर में निवास करती है।

शारीरिक चेतना से मुक्ति

सत्य के दर्शक अपने को शरीर से अलग देखने में सक्षम होते हैं। वे समझते हैं कि शरीर नश्वर है, जबकि आत्मा शाश्वत है। इस ज्ञान के कारण वे शारीरिक सुख-दुख, लाभ-हानि से प्रभावित नहीं होते और जीवन की परिस्थितियों को एक साक्षी की तरह देखते हैं।

कर्म और कर्ता का सिद्धांत

अहंकार और कर्तृत्व भाव

अहंकारी व्यक्ति अपने आप को सभी कर्मों का कर्ता मानता है। वह सोचता है कि उसकी सफलताएँ उसकी अपनी हैं और असफलताओं के लिए दूसरों को या परिस्थितियों को दोष देता है। यह दृष्टिकोण उसे निरंतर तनाव और चिंता में रखता है।

तत्त्वदर्शियों का दृष्टिकोण

इसके विपरीत, जो लोग सत्य को जान चुके हैं, वे समझते हैं कि सभी क्रियाएँ प्रकृति के तीन गुणों – सत्व, रज और तम – का परिणाम हैं। वे अपने आप को कर्ता नहीं, बल्कि एक माध्यम मात्र समझते हैं जिसके द्वारा कर्म होते हैं।

कबीर का दृष्टिकोण

इस संदर्भ में संत कबीर के दोहे का उल्लेख बहुत प्रासंगिक है:

“जो करइ सो हरि करइ, होत कबीर कबीर।”

यह दोहा स्पष्ट करता है कि वास्तव में सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है, लेकिन लोग भ्रमवश अपने आप को कर्ता मान लेते हैं।

अहंकार से मुक्ति का मार्ग

आत्मचिंतन और स्वाध्याय

अहंकार से मुक्त होने का पहला कदम है आत्मचिंतन। अपने विचारों, भावनाओं और कर्मों का निरीक्षण करना और उनके मूल में छिपे अहंकार को पहचानना महत्वपूर्ण है। नियमित स्वाध्याय और आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन इस प्रक्रिया में सहायक हो सकता है।

सेवा और समर्पण का भाव

दूसरों की निःस्वार्थ सेवा करना अहंकार को कम करने का एक प्रभावी तरीका है। जब हम दूसरों की भलाई के लिए काम करते हैं, तो धीरे-धीरे ‘मैं’ और ‘मेरा’ की भावना कम होती जाती है।

ध्यान और योग अभ्यास

नियमित ध्यान और योग अभ्यास मन को शांत करने और आत्मा के साथ संपर्क स्थापित करने में मदद करता है। यह अभ्यास हमें अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने में सहायता करता है।

अहंकार और आत्मज्ञान का प्रभाव

व्यक्तिगत जीवन पर प्रभाव

अहंकारी व्यक्तिआत्मज्ञानी व्यक्ति
तनाव और चिंताशांति और संतोष
द्वेष और ईर्ष्याप्रेम और करुणा
असंतोषआत्मसंतुष्टि
भयनिर्भयता
स्वार्थपरोपकार

समाज पर प्रभाव

अहंकार से मुक्त समाज एक ऐसा समाज होगा जहाँ लोग एक-दूसरे के साथ सहयोग और समन्वय से रहेंगे। ऐसे समाज में संघर्ष कम होंगे और शांति और सद्भाव का माहौल होगा।

निष्कर्ष

भगवद्गीता का यह श्लोक हमें एक महत्वपूर्ण जीवन दर्शन सिखाता है। यह हमें याद दिलाता है कि अहंकार एक भ्रम है जो हमें हमारी वास्तविक पहचान से दूर ले जाता है। सच्चा ज्ञान और आत्मबोध हमें इस भ्रम से मुक्त करता है और हमें जीवन के सच्चे उद्देश्य की ओर ले जाता है।

हमें यह समझना चाहिए कि हम शरीर नहीं, बल्कि आत्मा हैं, और हमारे कर्म प्रकृति के गुणों का परिणाम हैं। इस समझ के साथ, हम अपने जीवन को अधिक शांतिपूर्ण और सार्थक बना सकते हैं। यह न केवल हमारे व्यक्तिगत विकास के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि एक बेहतर समाज और विश्व के निर्माण में भी योगदान देता है।

अंत में, यह कहा जा सकता है कि अहंकार से मुक्ति और आत्मज्ञान की प्राप्ति एक निरंतर चलने वाली यात्रा है। यह एक ऐसी यात्रा है जो हमें अपने सच्चे स्वरूप की ओर ले जाती है और हमें जीवन के उच्चतम लक्ष्य – आत्मसाक्षात्कार की ओर अग्रसर करती है।

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