भगवद गीता: अध्याय 4, श्लोक 9

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥9॥
जन्म-जन्म; कर्म-कर्म; च-और; मे मेरे; दिव्यम्-दिव्य; एवम्-इस प्रकार; यः-जो कोई; वेत्ति-जानता है; तत्त्वतः-वास्तव में; त्यक्त्वा-त्याग कर; देहम्–शरीर में; पुनः-फिर; जन्म-जन्म; न कभी नहीं; जन्त–जन्म; एति-प्राप्त करता है। माम्-मुझको; एति-प्राप्त करता है; सः-वह; अर्जुन-अर्जुन।
Hindi translation: हे अर्जुन! जो मेरे जन्म एवं कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानते हैं वे शरीर छोड़ने पर संसार में पुनः जन्म नहीं लेते अपितु मेरे नित्य धाम को प्राप्त करते हैं।
भगवान की भक्ति: साकार और निराकार रूप
भक्ति का मार्ग हमारे जीवन को दिव्य आनंद से भर देता है। इस ब्लॉग पोस्ट में हम भगवान की भक्ति के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगे, विशेष रूप से उनके साकार और निराकार रूपों पर ध्यान केंद्रित करते हुए।
श्रद्धा का महत्व
श्रद्धापूर्वक भगवान के स्मरण में तल्लीन रहने से मन पवित्र होता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो हमारे अंतर्मन को शुद्ध करती है और हमें आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाती है।
निराकार भक्ति
निराकार भगवान की भक्ति अमूर्त और कुछ लोगों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकती है। इस प्रकार की साधना में:
- भक्त को ध्यान केंद्रित करने के लिए कोई ठोस आधार नहीं मिलता
- संपर्क स्थापित करना कठिन हो सकता है
- अधिक अनुभवी साधकों के लिए उपयुक्त हो सकती है
साकार भक्ति
साकार भगवान की भक्ति अधिक मूर्त और सरल है। इसमें शामिल हैं:
- भगवान के नाम का जप
- उनके रूप का ध्यान
- उनके गुणों का गुणगान
- उनकी लीलाओं का स्मरण
- उनके धाम की यात्रा
- उनके भक्तों की सेवा
श्रीकृष्ण की भक्ति
श्रीकृष्ण की भक्ति में तल्लीन होने के लिए, भक्तों को उनके प्रति दिव्य मनोभाव विकसित करना चाहिए। यह एक ऐसा मार्ग है जो भावनात्मक संबंध और आध्यात्मिक अनुभूति को जोड़ता है।
मूर्ति पूजा का महत्व
मूर्ति पूजा एक महत्वपूर्ण साधन है जिसके द्वारा भक्त अपने अंतःकरण को पवित्र कर सकते हैं। यह इसलिए प्रभावी है क्योंकि:
- भक्त मूर्ति में भगवान का वास मानते हैं
- यह भावना उनके हृदय को शुद्ध करती है
मनु का कथन
प्रथम पुरुष मनु ने कहा:
न काष्ठे विद्यते देवो न शिलायां न मृत्सु च।
भावे हि विद्यते देवस्तस्मात्भावं समाचरेत्।
अर्थात्: “भगवान न तो लकड़ी में और न ही पत्थर में अपितु भक्तों के हृदय में निवास करते हैं। इसलिए प्रेम भावना के साथ मूर्ति की पूजा करो।”
श्रीकृष्ण की लीलाओं का महत्व
श्रीकृष्ण की भक्ति में मग्न होने के लिए, उनकी लीलाओं के प्रति दिव्य मनोभाव विकसित करना आवश्यक है। यह भक्ति को गहरा बनाता है और भक्त को भगवान के करीब लाता है।
भगवान और जीव के कर्मों में अंतर
भगवान के कर्म (लीलाएँ) | जीवों के कर्म |
---|---|
निःस्वार्थ | स्वार्थ प्रेरित |
जीवों के कल्याण के लिए | निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए |
आनंद से परिपूर्ण | तृप्ति की खोज में |
दिव्य प्रकृति के | मायाबद्ध |
भगवान का दिव्य जन्म
श्रीकृष्ण का जन्म साधारण मानवीय जन्म से भिन्न है। श्रीमद्भागवतम् में वर्णित है:
तमद्भूतं बालकमम्बुजेक्षणं चतुर्भुजं शङ्खगदायुदायुधम्।
(श्रीमद्भागवतम्-10.3.9)
“जब श्रीकृष्ण अवतार लेने से पूर्व वासुदेव और देवकी के सम्मुख प्रकट हुए तब वह चतुर्भुज विष्णु के रूप में थे।”
भगवान के प्राकट्य की विशिष्टता
भगवान का प्राकट्य अद्भुत और दिव्य होता है:
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कलः।।
(श्रीमद्भागवतम्-10.3.8)
“जैसे आकाश में रात्रि के समय चन्द्रमा पूर्ण आभा के साथ प्रकट होता है उसी प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण देवकी और वासुदेव के समक्ष प्रकट हुए।”
निष्कर्ष
भगवान की लीलाओं और जन्म की दिव्यता में विश्वास रखने से हम उनके साकार रूप की भक्ति में सरलता से तल्लीन हो सकते हैं। यह मार्ग हमें हमारे परम लक्ष्य तक पहुँचाने में सहायक होता है, जहाँ हम भगवान के साथ एकात्मता का अनुभव कर सकते हैं।
भक्ति का मार्ग व्यक्तिगत होता है, और प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए सबसे उपयुक्त विधि चुननी चाहिए। चाहे वह निराकार हो या साकार, श्रद्धा और समर्पण के साथ की गई भक्ति निश्चित रूप से आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाएगी।
2 Comments