Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 2, श्लोक 64

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥64॥


राग–अनुरागद्वेष-विमुखता; वियुक्तेः-मुक्त; तु-लेकिन; विषयान्–इन्द्रिय विषयों को; इन्द्रियैः-इन्द्रियों द्वारा; चरन्-भोग करते हुए; आत्मवश्यैः-मन को अपने वश में करने वाला; विधेय-आत्मा-मन को नियत्रित करता है; प्रसादम्-भगवतकृपा को; अधिगच्छति–प्राप्त करता है।

Hindi translation: लेकिन जो मन को वश में रखता है वह इन्द्रियों के विषयों का भोग करने पर भी राग और द्वेष से मुक्त रहता है और भगवद्कृपा प्राप्त करता है।

आत्म-उत्थान का मार्ग: भौतिक आसक्ति से आध्यात्मिक प्रेम तक

प्रस्तावना

मानव जीवन एक अद्भुत यात्रा है, जो हमें भौतिक जगत की गहराइयों से आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक ले जाती है। इस यात्रा में, हम अक्सर दो विपरीत शक्तियों के बीच झूलते रहते हैं – एक ओर भौतिक आसक्ति और दूसरी ओर आध्यात्मिक प्रेम। यह ब्लॉग इस जटिल विषय पर प्रकाश डालता है, जिसे समझना हर साधक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

भौतिक आसक्ति: एक सूक्ष्म जाल

इंद्रियों का प्रलोभन

हमारी इंद्रियाँ हमें लगातार बाहरी जगत की ओर खींचती हैं। स्वाद, स्पर्श, गंध, श्रवण और दृश्य – ये सभी हमारे मन को मोहित करते हैं। लेकिन क्या यह मोह वास्तव में हमारे हित में है?

सुख की भ्रामक धारणा

हम अक्सर मानते हैं कि भौतिक वस्तुओं और अनुभवों से हमें सच्चा सुख मिलेगा। लेकिन यह धारणा कितनी सत्य है? क्या कभी किसी भौतिक वस्तु ने हमें स्थायी संतोष दिया है?

आध्यात्मिक प्रेम: सच्चे सुख का स्रोत

भगवान में सुख की खोज

जब हम अपना ध्यान भगवान की ओर मोड़ते हैं, तो एक नया द्वार खुलता है। यह द्वार हमें एक ऐसे सुख की ओर ले जाता है जो न तो क्षणिक है और न ही भ्रामक।

दिव्य प्रेम का शुद्धिकरण

भगवान के प्रति प्रेम हमारे मन को शुद्ध करता है। यह एक ऐसा प्रेम है जो हमें ऊपर उठाता है, न कि नीचे खींचता है। यह हमारी आत्मा को परिष्कृत करता है और हमें अधिक सद्गुणी बनाता है।

मोह और कामना का त्याग

लौकिक बनाम आध्यात्मिक आसक्ति

श्रीकृष्ण हमें सिखाते हैं कि लौकिक मोह और कामनाओं का त्याग करना चाहिए। लेकिन ध्यान दें, वे आध्यात्मिक आसक्ति और कामनाओं के त्याग की बात नहीं करते। यह एक महत्वपूर्ण अंतर है जिसे समझना जरूरी है।

मन का शुद्धिकरण

जितना अधिक हम अपनी भौतिक कामनाओं का दहन करेंगे, उतना ही अधिक हमारा मन शुद्ध होगा। यह एक प्रक्रिया है जो धैर्य और दृढ़ संकल्प की मांग करती है।

भगवद्गीता का मार्गदर्शन

निष्काम भाव से भगवान में मन स्थिर करना

भगवद्गीता में श्रीकृष्ण बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि हमें अपना मन भगवान में स्थिर करना चाहिए। यह एक ऐसी अवस्था है जो हमें माया के तीन गुणों से ऊपर उठा देती है।

भगवद्गीता के प्रमुख श्लोक

निम्नलिखित तालिका भगवद्गीता के कुछ प्रमुख श्लोकों को दर्शाती है जो इस विषय पर प्रकाश डालते हैं:

अध्याय और श्लोकमुख्य संदेश
8.7सदैव भगवान का स्मरण करो
9.22भगवान अपने भक्तों की रक्षा करते हैं
12.8अपना मन भगवान में स्थिर करो
18.65पूर्ण शरण में जाओ

राग और द्वेष: एक सिक्के के दो पहलू

नकारात्मक आसक्ति

द्वेष को नकारात्मक आसक्ति के रूप में समझा जा सकता है। जैसे आसक्ति हमें किसी वस्तु की ओर खींचती है, वैसे ही द्वेष हमें किसी वस्तु से दूर धकेलता है। दोनों ही हमारे मन को प्रभावित करते हैं।

मन पर प्रभाव

राग और द्वेष दोनों ही हमारे मन को दूषित करते हैं। वे हमें माया के जाल में फंसाए रखते हैं और हमारी आध्यात्मिक प्रगति में बाधा डालते हैं।

आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग

राग और द्वेष से मुक्ति

सच्ची आध्यात्मिक उन्नति तब होती है जब हम राग और द्वेष दोनों से मुक्त हो जाते हैं। यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ हम न किसी वस्तु के प्रति आकर्षित होते हैं और न ही किसी से घृणा करते हैं।

भगवान की भक्ति में तल्लीनता

जब हमारा मन भगवान की भक्ति में पूरी तरह से लीन हो जाता है, तब हम एक अनन्त दिव्य सुख का अनुभव करते हैं। यह सुख इतना गहरा और संतोषजनक होता है कि संसार के क्षणिक सुख हमें आकर्षित नहीं कर पाते।

स्थितप्रज्ञ की अवस्था

इंद्रियों के विषयों का निर्लिप्त भोग

एक स्थितप्रज्ञ व्यक्ति संसार में रहते हुए भी उससे अलिप्त रहता है। वह इंद्रियों के विषयों का भोग करता है, लेकिन उनमें आसक्त नहीं होता। यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ व्यक्ति संसार में रहते हुए भी उससे ऊपर उठ जाता है।

आसक्ति और विमुखता से मुक्ति

स्थितप्रज्ञ व्यक्ति न तो किसी वस्तु के प्रति आसक्त होता है और न ही किसी से विमुख। वह एक संतुलित जीवन जीता है, जो न तो अति उत्साह में डूबा होता है और न ही निराशा में।

निष्कर्ष

हमारी यात्रा भौतिक आसक्ति से आध्यात्मिक प्रेम की ओर है। यह एक ऐसी यात्रा है जो हमें अपने वास्तविक स्वरूप की ओर ले जाती है। इस यात्रा में, हमें अपने मन को नियंत्रित करना सीखना होगा, अपनी इंद्रियों पर काबू पाना होगा, और अपने हृदय को भगवान के प्रेम से भरना होगा।

यह मार्ग कठिन हो सकता है, लेकिन यह असंभव नहीं है। हर कदम हमें हमारे लक्ष्य के करीब लाता है। हर चुनौती हमें मजबूत बनाती है। और अंत में, जब हम अपने लक्ष्य तक पहुंचते हैं, तो हम पाते हैं कि यह यात्रा हर कठिनाई के लायक थी।

तो आइए, हम सब मिलकर इस यात्रा पर निकलें। आइए, हम अपने मन को भगवान में स्थिर करें, अपने हृदय को दिव्य प्रेम से भरें, और अपने जीवन को एक ऐसा उदाहरण बनाएं जो दूसरों को प्रेरित करे। क्योंकि अंत में, यही हमारे जीवन का सच्चा उद्देश्य है – अपने आप को जानना, भगवान को जानना, और उस दिव्य प्रेम में डूब जाना जो हमारे अस्तित्व का मूल है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button