Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 3, श्लोक 14

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥14॥


अन्नात्-अन्न पदार्थ; भवन्ति–निर्भर होता है; भूतानि-जीवों को पर्जन्यात्-वर्षा से; अन्न खाद्यान्न सम्भवः-उत्पादन; यज्ञात्-यज्ञ सम्पन्न करने से; भवति–सम्भव होती है। पर्जन्य:-वर्षा; यज्ञः-यज्ञ का सम्पन्न होना; कर्म-निश्चित कर्त्तव्य से; समुद्भवः-उत्पन्न होता है।

Hindi translation: सभी लोग अन्न पर निर्भर हैं और अन्न वर्षा से उत्पन्न होता हैं, वर्षा यज्ञ का अनुष्ठान करने से होती है और यज्ञ निर्धारित कर्मों का पालन करने से सम्पन्न होता है।

सृष्टि का अनंत चक्र: श्रीकृष्ण की दृष्टि में

प्रस्तावना

श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने सृष्टि के चक्र का एक अद्भुत वर्णन किया है। यह चक्र न केवल प्राकृतिक प्रक्रियाओं को दर्शाता है, बल्कि मानव जीवन और उसके कर्तव्यों के साथ प्रकृति के गहन संबंध को भी प्रकट करता है। आइए इस गहन विषय को विस्तार से समझें।

वर्षा से अन्न तक

वर्षा का महत्व

वर्षा प्रकृति का एक अनमोल उपहार है। यह न केवल धरती को शीतलता प्रदान करती है, बल्कि जीवन के लिए आवश्यक जल भी प्रदान करती है। कृषि के लिए वर्षा का महत्व अत्यधिक है।

अन्न उत्पादन

वर्षा के कारण धरती में नमी आती है, जो बीजों के अंकुरण के लिए आवश्यक है। इसके बाद सूर्य की किरणें और मिट्टी के पोषक तत्व मिलकर फसलों को पनपने में मदद करते हैं। इस प्रकार वर्षा अन्न उत्पादन का मूल कारण बनती है।

अन्न से रक्त तक

पोषण का महत्व

अन्न मानव शरीर के लिए ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। जब हम भोजन करते हैं, तो हमारा शरीर उसे पचाकर उसमें से पोषक तत्वों को ग्रहण करता है।

रक्त का निर्माण

पाचन क्रिया के दौरान, अन्न से प्राप्त पोषक तत्व रक्त में मिल जाते हैं। यह रक्त शरीर के हर कोने में पहुंचकर सभी अंगों और कोशिकाओं को पोषण प्रदान करता है।

रक्त से वीर्य तक

शरीर की आंतरिक प्रक्रियाएं

रक्त में मौजूद पोषक तत्व विभिन्न अंगों द्वारा अवशोषित किए जाते हैं। इनमें से कुछ तत्व वीर्य के निर्माण में सहायक होते हैं।

वीर्य का महत्व

वीर्य न केवल प्रजनन के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह शरीर की जीवन शक्ति का भी प्रतीक माना जाता है। आयुर्वेद में वीर्य को सप्त धातुओं में से एक माना गया है।

वीर्य से मनुष्य तक

गर्भधारण और विकास

वीर्य और स्त्री बीज के मिलन से नए जीवन का आरंभ होता है। यह प्रक्रिया मानव शरीर के निर्माण का आधार है।

मानव जीवन का उद्देश्य

श्रीकृष्ण के अनुसार, मनुष्य का जन्म केवल भोग के लिए नहीं, बल्कि कर्तव्य पालन के लिए होता है। यह कर्तव्य यज्ञ के रूप में प्रकट होता है।

मनुष्य से यज्ञ तक

यज्ञ का अर्थ

यज्ञ का अर्थ केवल अग्नि में आहुति देना नहीं है। यह एक व्यापक अवधारणा है जो किसी भी निःस्वार्थ कर्म को संदर्भित करती है।

यज्ञ के प्रकार

  1. देव यज्ञ: देवताओं की पूजा
  2. पितृ यज्ञ: पूर्वजों का सम्मान
  3. भूत यज्ञ: प्राणियों की सेवा
  4. नृ यज्ञ: मानव सेवा
  5. ब्रह्म यज्ञ: ज्ञान का अध्ययन और प्रसार

यज्ञ से देवता तक

देवताओं की संतुष्टि

यज्ञ के माध्यम से मनुष्य प्रकृति के विभिन्न तत्वों (जो देवताओं के रूप में वर्णित हैं) को संतुष्ट करता है।

प्राकृतिक संतुलन

यज्ञ प्रकृति और मनुष्य के बीच एक संतुलन स्थापित करता है, जो पर्यावरण के लिए लाभदायक होता है।

देवता से वर्षा तक

प्राकृतिक चक्र का पूर्णता

संतुष्ट देवता (प्राकृतिक शक्तियाँ) पृथ्वी पर वर्षा करते हैं, जो फिर से अन्न उत्पादन का कारण बनती है।

मानव की भूमिका

इस चक्र में मनुष्य की भूमिका महत्वपूर्ण है। वह अपने कर्मों से इस चक्र को गति प्रदान करता है।

सृष्टि के चक्र का महत्व

पारिस्थितिक संतुलन

यह चक्र प्रकृति में एक नैसर्गिक संतुलन बनाए रखता है, जो सभी जीवों के लिए आवश्यक है।

आध्यात्मिक महत्व

इस चक्र को समझना और इसमें सहभागी होना आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग भी है।

निष्कर्ष

श्रीकृष्ण द्वारा वर्णित सृष्टि का यह चक्र हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य में रहने की शिक्षा देता है। यह हमें याद दिलाता है कि हम इस विशाल प्रणाली का एक छोटा सा हिस्सा हैं, और हमारे कर्म इसे प्रभावित करते हैं। इस चक्र को समझकर, हम अपने जीवन को अधिक सार्थक और संतुलित बना सकते हैं।

सृष्टि के चक्र का सारांश

क्रमप्रक्रियामहत्व
1वर्षा से अन्नजीवन का आधार
2अन्न से रक्तशारीरिक पोषण
3रक्त से वीर्यजीवन शक्ति
4वीर्य से मनुष्यनया जीवन
5मनुष्य से यज्ञकर्तव्य पालन
6यज्ञ से देवताप्राकृतिक संतुलन
7देवता से वर्षाचक्र का पुनरारंभ

इस प्रकार, श्रीकृष्ण ने एक सरल से प्रतीत होने वाले श्लोक में सृष्टि के गहन रहस्य को उजागर किया है। यह चक्र हमें सिखाता है कि प्रकृति और मानव एक दूसरे पर निर्भर हैं, और इस संबंध को समझना और सम्मान करना हमारा परम कर्तव्य है। यह ज्ञान न केवल हमारे व्यक्तिगत जीवन को समृद्ध करता है, बल्कि समाज और पर्यावरण के लिए भी लाभदायक है।

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