Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 4, श्लोक 2

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥2॥


एवम्-इस प्रकार; परम्परा-सतत परम्परागत; प्राप्तम्–प्राप्त; इमम-इस विज्ञान को; राज-ऋषयः-राजर्षियों ने; विदुः-जाना; सः-वह; कालेन-अनंत युगों के साथ; इह-इस संसार में; महता-महान; योग:-योग शास्त्र; नष्ट:-विलुप्त होना; परन्तप-शत्रुओं का दमनकर्ता, अर्जुन।

Hindi translation:हे शत्रुओं के दमन कर्ता! इस प्रकार राजर्षियों ने सतत गुरु परम्परा पद्धति द्वारा ज्ञान योग की विद्या प्राप्त की किन्तु अनन्त युगों के साथ यह विज्ञान संसार से लुप्त हो गया प्रतीत होता है।

दिव्य ज्ञान की परम्परा: गुरु से शिष्य तक

भारतीय संस्कृति में ज्ञान का महत्व सर्वोपरि रहा है। प्राचीन काल से ही गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम से दिव्य ज्ञान का प्रवाह होता आया है। यह ब्लॉग इसी महान परम्परा और उसके महत्व पर प्रकाश डालता है।

गुरु-शिष्य परम्परा का महत्व

गुरु-शिष्य परम्परा भारतीय संस्कृति का एक अनमोल रत्न है। इस परम्परा के माध्यम से न केवल ज्ञान का हस्तांतरण होता है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग भी प्रशस्त होता है।

गुरु की भूमिका

गुरु केवल शिक्षक नहीं होता, वह एक मार्गदर्शक, मित्र और आध्यात्मिक पथप्रदर्शक होता है। गुरु अपने शिष्य को:

  • ज्ञान प्रदान करता है
  • आत्मज्ञान की ओर ले जाता है
  • जीवन के लक्ष्य को समझने में मदद करता है

शिष्य के कर्तव्य

शिष्य का कर्तव्य होता है:

  • गुरु के प्रति समर्पण
  • निष्ठापूर्वक अध्ययन
  • प्राप्त ज्ञान का आचरण में उतारना

दिव्य ज्ञान की परम्परा का इतिहास

आदि गुरु: भगवान स्वयं

भारतीय दर्शन के अनुसार, इस संसार के प्रथम गुरु स्वयं भगवान हैं। श्रीमद्भागवतम् में उल्लेख है:

तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवयेमुह्यन्ति यत्सूरयः। (श्रीमद्भागवतम्-1.1.1)

इसका अर्थ है कि भगवान ने सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा के हृदय में बैठकर उन्हें दिव्य ज्ञान प्रदान किया।

ज्ञान का प्रवाह

इस दिव्य ज्ञान का प्रवाह निरंतर चलता रहा:

  1. भगवान → ब्रह्मा
  2. ब्रह्मा → ऋषि-मुनि
  3. ऋषि-मुनि → राजर्षि (जैसे निमि और जनक)

श्रीकृष्ण ने भी इस परम्परा को आगे बढ़ाया, जैसा कि भगवद्गीता में उल्लेख है कि उन्होंने यह ज्ञान सूर्यदेव विवस्वान को दिया।

ज्ञान की विलुप्ति और पुनर्स्थापना

कालक्रम में ज्ञान का ह्रास

समय के साथ, मानवीय कमजोरियों के कारण, इस दिव्य ज्ञान की शुद्धता प्रभावित हुई:

  • लौकिक मनोवृत्ति वाले शिष्यों द्वारा गलत व्याख्या
  • निहित स्वार्थों के कारण ज्ञान का विकृतीकरण
  • आध्यात्मिक निष्ठा का अभाव

भगवान द्वारा ज्ञान की पुनर्स्थापना

जब ज्ञान की शुद्धता खतरे में पड़ती है, तब भगवान स्वयं या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से इसकी पुनर्स्थापना करते हैं:

  • स्वयं अवतार लेकर
  • भगवद् अनुभूत संतों को भेजकर

आधुनिक काल में ज्ञान की पुनर्स्थापना

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का योगदान

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने आधुनिक समय में प्राचीन वैदिक ज्ञान को पुनर्जीवित किया:

  • 34 वर्ष की आयु में ‘जगद्गुरु’ की उपाधि से सम्मानित
  • भारतीय इतिहास में पाँचवें मूल जगद्गुरु
  • प्राचीन वैदिक ग्रंथों पर असाधारण अधिकार

भारत के पाँच मूल जगद्गुरु

क्रम संख्याजगद्गुरु का नाम
1आदि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य
2जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य
3जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य
4जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य
5जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

निष्कर्ष

गुरु-शिष्य परम्परा भारतीय संस्कृति का एक अमूल्य खजाना है। यह परम्परा न केवल ज्ञान के हस्तांतरण का माध्यम है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग भी प्रशस्त करती है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक समय तक, यह परम्परा निरंतर चली आ रही है, जिसमें समय-समय पर महान संतों और गुरुओं ने अपना योगदान दिया है।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज जैसे महान संतों ने आधुनिक समय में इस ज्ञान परम्परा को पुनर्जीवित किया है। उनके प्रयासों से न केवल प्राचीन वैदिक ज्ञान की महत्ता पुनः स्थापित हुई, बल्कि आधुनिक पीढ़ी को भी इस अमूल्य विरासत से जुड़ने का अवसर मिला।

अंत में, यह कहना उचित होगा कि गुरु-शिष्य परम्परा केवल ज्ञान का हस्तांतरण नहीं है, बल्कि यह एक जीवंत प्रक्रिया है जो व्यक्ति को आत्मज्ञान और आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाती है। यह परम्परा हमारी सांस्कृतिक विरासत का एक अभिन्न अंग है, जिसे संरक्षित और संवर्धित करना हमारा कर्तव्य है।

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