भगवद गीता: अध्याय 4, श्लोक 4

अर्जुन उवाच।
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥4॥
अर्जुन उवाच-अर्जुन ने कहा; अपरम्-बाद में; भवतः-आपका; जन्म-जन्म; परम्-पहले; जन्म-जन्म; विवस्वतः-सूर्यदेव का; कथम्-कैसे; एतत्-यह; विजानीयाम्-मैं मानू; त्वम्-तुमने; आदौ-प्रारम्भ में; प्रोक्तवान्–उपदेश दिया; इति-इस प्रकार।
Hindi translation: अर्जुन ने कहा! आपका जन्म विवस्वान् के बहुत बाद हुआ तब मैं फिर यह कैसे मान लूं कि प्रारम्भ में आपने उन्हें इस ज्ञान का उपदेश दिया था।
श्रीकृष्ण और अर्जुन: एक दिव्य संवाद की गहराई
भगवद्गीता का रहस्य: काल और अवतार का संगम
गीता के चौथे अध्याय में एक ऐसा प्रसंग आता है जो न केवल अर्जुन के मन में उलझन पैदा करता है, बल्कि पाठकों को भी गहन चिंतन के लिए प्रेरित करता है। यह प्रसंग श्रीकृष्ण के दिव्य ज्ञान और उनके अवतार की प्रकृति पर प्रकाश डालता है।
अर्जुन का संदेह: एक मानवीय प्रतिक्रिया
अर्जुन, जो श्रीकृष्ण को एक मित्र और सारथी के रूप में जानता है, उनके कथन से विचलित हो जाता है। श्रीकृष्ण का यह दावा कि उन्होंने इस योग विद्या का ज्ञान सूर्य देवता विवस्वान को दिया था, अर्जुन के लिए असंगत प्रतीत होता है। उसके मन में उठने वाले प्रश्न स्वाभाविक हैं:
- सूर्य देव तो सृष्टि के आरंभ से ही विद्यमान हैं।
- श्रीकृष्ण का जन्म तो हाल ही में हुआ है।
- कैसे एक नवजात बालक प्राचीन देवता को ज्ञान दे सकता है?
श्रीकृष्ण का उत्तर: दिव्यता का रहस्योद्घाटन
श्रीकृष्ण अर्जुन के संदेह को समझते हैं और उसे एक गहन सत्य से अवगत कराते हैं। वे कहते हैं:
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप॥
अर्थात्: “हे अर्जुन, मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, परन्तु तुम नहीं जानते।”
अवतार का सिद्धांत: एक दार्शनिक विवेचन
परब्रह्म की निरंतर उपस्थिति
श्रीकृष्ण का यह कथन हमें अवतार के सिद्धांत की ओर ले जाता है। यह सिद्धांत बताता है कि परमात्मा समय-समय पर मानव रूप धारण करते हैं। लेकिन यह धारणा सामान्य जन्म से भिन्न है:
- नित्यता: परब्रह्म सदैव विद्यमान रहता है।
- सर्वज्ञता: वे अपने सभी पूर्व अवतारों को जानते हैं।
- उद्देश्यपूर्णता: प्रत्येक अवतार का एक विशिष्ट लक्ष्य होता है।
मानवीय और दिव्य का संगम
अवतार की अवधारणा में मानवीय और दिव्य का अद्भुत संगम दिखाई देता है:
मानवीय पहलू | दिव्य पहलू |
---|---|
शारीरिक रूप | अनंत ज्ञान |
समय-बद्ध उपस्थिति | कालातीत अस्तित्व |
सीमित दिखने वाली शक्तियाँ | असीमित क्षमताएँ |
मानवीय व्यवहार | दिव्य चेतना |
गीता का संदेश: व्यक्तिगत और सार्वभौमिक
आत्मज्ञान का महत्व
श्रीकृष्ण का यह कथन केवल अपने दिव्य स्वरूप के बारे में नहीं है। यह हमें आत्मज्ञान के महत्व की ओर भी इंगित करता है:
- आत्मा की शाश्वतता: जैसे श्रीकृष्ण अपने पूर्व जन्मों को जानते हैं, वैसे ही हमारी आत्मा भी अमर है।
- ज्ञान की शक्ति: सच्चा ज्ञान हमें हमारे वास्तविक स्वरूप से परिचित कराता है।
- मोह से मुक्ति: अपने सच्चे स्वरूप को जानने से हम भौतिक मोह से मुक्त हो सकते हैं।
धर्म की पुनर्स्थापना
श्रीकृष्ण अपने अवतार के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं:
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
अर्थात्: “हे भारत, जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।”
इस कथन से निम्नलिखित बिंदु उभरकर सामने आते हैं:
- धर्म का संरक्षण: अवतार का प्राथमिक उद्देश्य धर्म की रक्षा करना है।
- संतुलन की स्थापना: समाज में नैतिक और आध्यात्मिक संतुलन बनाए रखना।
- मार्गदर्शन: मानवता को सही दिशा दिखाना।
निष्कर्ष: एक सार्वकालिक संदेश
श्रीकृष्ण और अर्जुन का यह संवाद केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं है। यह हर युग के लिए प्रासंगिक एक गहन दार्शनिक विचार है। यह हमें सिखाता है:
- प्रश्न करने का महत्व: अर्जुन की तरह, हमें भी जिज्ञासु होना चाहिए और गहराई से समझने का प्रयास करना चाहिए।
- आत्म-खोज: हमें अपने सच्चे स्वरूप की खोज करनी चाहिए, जो कि समय और शरीर से परे है।
- धर्म का पालन: हमें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए समाज में धर्म और नैतिकता को बनाए रखना चाहिए।
- दिव्य और मानवीय का समन्वय: जीवन में भौतिक और आध्यात्मिक पहलुओं के बीच संतुलन बनाना सीखना चाहिए।
अंत में, यह संवाद हमें याद दिलाता है कि जीवन के रहस्य गहरे हैं, और उन्हें समझने के लिए एक खुला दिमाग और गहन चिंतन आवश्यक है। श्रीकृष्ण के शब्द हमें आत्म-जागरूकता की ओर ले जाते हैं और हमें अपने जीवन के उद्देश्य पर फिर से विचार करने के लिए प्रेरित करते हैं।
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