भगवद गीता: अध्याय 4, श्लोक 5

श्रीभगवानुवाच।
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥5॥
श्री-भगवान् उवाच-परम् प्रभु ने कहा; बहूनि–अनेक; मे–मेरे; व्यतीतानि-व्यतीत हो चुके; जन्मानि-जन्म; तव-तुम्हारे; च-और; अर्जुन-अर्जुन; तानि-उन; अहम्-मैं जानता हूँ; सर्वाणि-सभी जन्मों को; न-नहीं; त्वम्-तुम; वेत्थ-जानते हो; परन्तप-शत्रुओं का दमन करने वाला, अर्जुन।
Hindi translation: तुम्हारे और मेरे अनन्त जन्म हो चुके हैं किन्तु हे परन्तप! तुम उन्हें भूल चुके हो जबकि मुझे उन सबका स्मरण है।
श्रीकृष्ण का दिव्य अवतार: मानवीय रूप में परमात्मा की अभिव्यक्ति
परिचय: अवतार का रहस्य
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जहाँ श्रीकृष्ण अपने दिव्य स्वरूप के बारे में बताते हैं। यह प्रसंग न केवल अवतार की अवधारणा को समझने में मदद करता है, बल्कि जीवात्मा और परमात्मा के बीच के अंतर को भी स्पष्ट करता है।
श्रीकृष्ण का स्पष्टीकरण: मानवीय रूप में दिव्यता
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि उनका मानवीय रूप उनकी दिव्यता को कम नहीं करता। वे एक सटीक उदाहरण देते हैं:
जैसे एक राष्ट्राध्यक्ष कारागार का निरीक्षण करने जाता है, उसे वहाँ देखकर यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि वह एक बंदी है।
इसी प्रकार, श्रीकृष्ण का मानव रूप में अवतरण उनकी दिव्य शक्तियों और गुणों को प्रभावित नहीं करता।
जीवात्मा और परमात्मा: समानताएँ और अंतर
समानताएँ
- सत् (नित्यता)
- चित् (चेतनता)
- आनंद (आनंदमय स्वभाव)
अंतर
विशेषता | परमात्मा (श्रीकृष्ण) | जीवात्मा |
---|---|---|
व्यापकता | सर्वव्यापक | शरीर तक सीमित |
शक्ति | सर्वशक्तिमान | सीमित शक्ति |
नियंत्रण | सृष्टि के नियामक | नियमों के अधीन |
ज्ञान | सर्वज्ञ | सीमित ज्ञान |
माया | माया के नियंता | माया के अधीन |
शंकराचार्य का दृष्टिकोण: अज्ञानियों की भर्त्सना
शंकराचार्य अपनी टीका में कहते हैं:
“या वासुदेवेअनीश्वरासर्वज्ञाननान्षणम मूर्खाणां तां परिहरन् श्रीभगवान् उवाच।”
अर्थात, यह श्लोक उन मूर्खों की आलोचना करता है जो श्रीकृष्ण को भगवान मानने में संदेह करते हैं।
नास्तिकों का तर्क और उसका खंडन
- नास्तिकों का तर्क: श्रीकृष्ण ने सामान्य मनुष्यों की तरह जन्म लिया, भोजन किया, और अन्य मानवीय क्रियाएँ कीं।
- श्रीकृष्ण का खंडन: वे स्पष्ट करते हैं कि अवतार लेने के बावजूद, वे अपनी दिव्य शक्तियों और ज्ञान को बनाए रखते हैं।
अर्जुन को ‘परंतप’ संबोधन: एक गहन संदेश
श्रीकृष्ण अर्जुन को ‘परंतप’ कहकर संबोधित करते हैं, जिसका अर्थ है ‘शत्रुओं का दमनकर्ता’। इस संबोधन के माध्यम से वे एक गहरा संदेश देते हैं:
- आत्मविश्वास का महत्व: अर्जुन को याद दिलाया जाता है कि वह एक महान योद्धा है।
- आंतरिक शत्रुओं से लड़ना: संदेह और अज्ञान को भी शत्रु के रूप में देखा जाना चाहिए।
- ज्ञान की शक्ति: श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान रूपी खड्ग देते हैं।
श्रीकृष्ण का आह्वान
“अर्जुन, तुम पराक्रमी योद्धा हो। अब इस संदेह के समक्ष पराजित न हो। ज्ञान की इस तलवार से अपने शत्रुओं का वध करो और ज्ञान में स्थित हो जाओ।”
अवतार का उद्देश्य: लोक कल्याण
श्रीकृष्ण के अवतार का मुख्य उद्देश्य लोक कल्याण है। वे इस संसार में धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिए आते हैं। उनका अवतार निम्नलिखित कारणों से महत्वपूर्ण है:
- धर्म की रक्षा: जब अधर्म बढ़ता है, तब वे धर्म की रक्षा के लिए अवतरित होते हैं।
- मार्गदर्शन: वे मानवता को सही मार्ग दिखाते हैं।
- ज्ञान का प्रसार: वे दिव्य ज्ञान का प्रसार करते हैं, जैसा कि गीता में किया गया है।
- भक्तों की रक्षा: वे अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और उन्हें मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं।
अवतार की विशेषताएँ: दिव्यता और मानवीयता का संगम
श्रीकृष्ण के अवतार में दिव्यता और मानवीयता का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। इसकी कुछ प्रमुख विशेषताएँ हैं:
- पूर्ण ज्ञान: अवतार के रूप में भी वे सर्वज्ञ रहते हैं।
- अलौकिक शक्तियाँ: वे अपनी दिव्य शक्तियों को बनाए रखते हैं।
- मानवीय लीलाएँ: वे मानवीय गतिविधियों में संलग्न होते हैं, जो भक्तों को उनसे जुड़ने में मदद करती हैं।
- करुणा और प्रेम: वे अपने भक्तों के प्रति असीम करुणा और प्रेम प्रदर्शित करते हैं।
जीवात्मा का उत्थान: श्रीकृष्ण का संदेश
श्रीकृष्ण का यह उपदेश केवल अपने दिव्य स्वरूप के बारे में नहीं है, बल्कि यह जीवात्मा के उत्थान का मार्ग भी प्रशस्त करता है:
- आत्मज्ञान का महत्व: वे हमें अपने वास्तविक स्वरूप को जानने की प्रेरणा देते हैं।
- माया से मुक्ति: उनका ज्ञान हमें माया के बंधन से मुक्त होने में सहायता करता है।
- भक्ति का मार्ग: वे भक्ति के माध्यम से परमात्मा से जुड़ने का मार्ग दिखाते हैं।
- कर्म योग: वे निष्काम कर्म का महत्व समझाते हैं, जो आध्यात्मिक उन्नति का एक प्रमुख साधन है।
निष्कर्ष: दिव्यता की अनुभूति
श्रीकृष्ण का यह उपदेश हमें एक महत्वपूर्ण सत्य से अवगत कराता है – दिव्यता केवल एक बाहरी अवधारणा नहीं है, बल्कि यह हमारे भीतर निहित है। जब हम इस सत्य को समझ लेते हैं, तो हमारा दृष्टिकोण बदल जाता है:
- आत्म-साक्षात्कार: हम अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने लगते हैं।
- जीवन का उद्देश्य: हमें अपने जीवन के उच्च उद्देश्य का बोध होता है।
- सेवा भाव: हम दूसरों की सेवा में दिव्यता की अभिव्यक्ति देखते हैं।
- आध्यात्मिक प्रगति: हम निरंतर आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होते हैं।
अंत में, श्रीकृष्ण का यह उपदेश हमें याद दिलाता है कि हम सभी में दिव्यता का अंश है। हमारा कर्तव्य है कि हम इस दिव्यता को पहचानें, उसे विकसित करें, और अपने जीवन में उसकी अभिव्यक्ति करें। यही सच्चे अर्थों में अवतार के उद्देश्य को पूरा करना है – न केवल भगवान को पहचानना, बल्कि स्वयं में भी उस दिव्यता को जागृत करना।
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