Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 5, श्लोक 11

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥11॥

कायेन-शरीर के साथ; मनसा-मन से; बुद्धया-बुद्धि से; केवलैः-केवल; इन्द्रियैः-इन्द्रियों से; अपि-भी; योगिनः-योगी; कर्म-कर्म; कुर्वन्ति-करते हैं; सङ्गम्-आसक्ति; त्यक्त्वा-त्याग कर; आत्म-आत्मा की; शुद्धये-शुद्धि के लिए। योगीजन आसक्ति को त्याग कर अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि द्वारा केवल अपने शुद्धिकरण के उद्देश्य से कर्म करते हैं।

Hindi translation: योगीजन आसक्ति को त्याग कर अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि द्वारा केवल अपने शुद्धिकरण के उद्देश्य से कर्म करते हैं।

कर्म योग और आध्यात्मिक शुद्धि: एक गहन विश्लेषण

प्रस्तावना

आध्यात्मिक जीवन में कर्म योग का महत्व अत्यधिक है। यह न केवल व्यक्तिगत विकास का मार्ग है, बल्कि समाज और विश्व के कल्याण का भी साधन है। इस लेख में हम कर्म योग के विभिन्न पहलुओं, उसके महत्व, और उसके माध्यम से आध्यात्मिक शुद्धि प्राप्त करने की प्रक्रिया पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

कर्म योग का सार

मृग-तृष्णा से मुक्ति

योगी जन इस सत्य को भलीभांति समझते हैं कि लौकिक कामनाओं के पीछे भागना व्यर्थ है। यह एक प्रकार की मृग-तृष्णा है, जैसे रेगिस्तान में प्यासा हिरण जल की खोज में भटकता है। यह समझ उन्हें निजी कामनाओं से मुक्त होने और अपने कर्मों को भगवान को समर्पित करने की प्रेरणा देती है।

भगवान: सर्वोच्च भोक्ता

श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:

“भोक्तारं यज्ञ तपसाम्”

अर्थात्, भगवान ही सभी यज्ञों और तपों के एकमात्र भोक्ता हैं। यह कथन कर्म योग के मूल सिद्धांत को प्रकट करता है – हमारे सभी कर्म अंततः भगवान को ही समर्पित होने चाहिए।

समर्पण का नया दृष्टिकोण

अंतःकरण की शुद्धि

श्रीकृष्ण यहाँ समर्पण की एक नवीन अवधारणा प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि सिद्ध योगी अपने अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं। यह दृष्टिकोण कर्म को एक आंतरिक प्रक्रिया के रूप में देखता है, जो आत्म-शुद्धि की ओर ले जाता है।

भगवान की अपेक्षाएँ

वास्तव में, भगवान हमसे कुछ भी अपेक्षा नहीं रखते। वे स्वयं में पूर्ण और सिद्ध हैं। हम, जो कि अणु आत्माएँ हैं, सर्वशक्तिमान भगवान को क्या दे सकते हैं जो उनके पास पहले से न हो?

समर्पण का सच्चा अर्थ

संत यमुनाचार्य का दृष्टिकोण

संत यमुनाचार्य ने अपने श्लोक में इस गहन सत्य को बखूबी व्यक्त किया है:

मम नाथ यद् अस्ति योऽस्म्यहं सकलम् तद्धी तवैव माधव ।
नियतस्वम् इति प्रबुद्धधैरथवा किं नु समर्पयामि ते।।
(श्रीस्त्रोत रत्न-50)

इसका अर्थ है:

“हे भाग्य की देवी लक्ष्मी के स्वामी विष्णु भगवान, जब मैं अज्ञानी था, तब मैं समझता था कि मैं आपको बहुत कुछ दे सकता हूँ। किंतु अब, जब मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया है, मैं समझता हूँ कि मेरे पास जो कुछ भी है, वह पहले से ही आपका है। इसलिए, मैं आपको क्या अर्पित कर सकता हूँ?”

अंतःकरण की शुद्धि: सर्वोत्तम समर्पण

वास्तव में, एकमात्र कर्म जो हमारे नियंत्रण में है, वह है अपने अंतःकरण (मन और बुद्धि) को शुद्ध करना। जब हम अपने अंतःकरण को शुद्ध कर लेते हैं और उसे भगवान की भक्ति में लीन कर देते हैं, तब भगवान इससे सर्वाधिक प्रसन्न होते हैं।

योगियों का दृष्टिकोण

स्वार्थ त्याग

योगी जन अपने निजी स्वार्थों को त्यागकर, भगवान के सुख को अपना परम लक्ष्य मानते हैं। वे समझते हैं कि अंतःकरण की शुद्धि ही वह सर्वोत्तम वस्तु है जो वे भगवान को अर्पित कर सकते हैं।

रामायण का उदाहरण

रामायण में इस सिद्धांत का एक रोचक उदाहरण मिलता है। जब सुग्रीव युद्ध से पहले भयभीत होता है, तब भगवान राम उसे समझाते हैं:

पिशाचान् दानवान् यक्षान् पृथिव्यां चैव राक्षसान् ।
अंगुग्रेन तान्हन्या मिच्छन् हरी गणेश्वरः।।
(वाल्मीकि रामायण)

भगवान राम कहते हैं, “यदि मैं केवल अपने बाएँ हाथ की अंगुली को थोड़ा सा टेढ़ा कर दूँ, तो न केवल रावण और कुंभकरण, बल्कि संसार के समस्त राक्षस धराशायी हो जाएंगे।”

जब सुग्रीव पूछता है कि फिर इतनी बड़ी सेना इकट्ठा करने की क्या आवश्यकता थी, तब राम उत्तर देते हैं कि यह सब सुग्रीव की शुद्धि के लिए, उसे भक्ति सेवा में लीन होने का अवसर प्रदान करने के लिए है।

आध्यात्मिक शुद्धि का महत्व

स्थायी संपत्ति

हमारे द्वारा अर्जित मन की शुद्धि ही हमारी एकमात्र स्थायी संपत्ति है, जो हमारे साथ अगले जन्म में भी जाती है। बाकी सब कुछ इसी संसार में छूट जाता है।

जीवन की सफलता का मापदंड

हमारे जीवन की सफलता या असफलता इस बात से निर्धारित होती है कि हमने अपने अंतःकरण की शुद्धि के लिए कितने प्रयास किए।

प्रतिकूल परिस्थितियों का महत्व

शुद्धि के अवसर

सिद्ध योगी प्रतिकूल परिस्थितियों का स्वागत करते हैं, क्योंकि वे इन्हें अंतःकरण की शुद्धि के अवसर के रूप में देखते हैं।

संत कबीर का दृष्टिकोण

संत कबीर ने इस विचार को बड़ी सुंदरता से व्यक्त किया है:

निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छबाय।
नित साबुन पानी बिना निर्मल करे सुभाय ।।

अर्थात्, “यदि तुम अपने मन को शीघ्र निर्मल करना चाहते हो, तो किसी निंदक की संगति में रहो। जब तुम उसके निंदनीय शब्दों को सहन करोगे, तब तुम्हारा मन बिना जल और साबुन के ही निर्मल हो जाएगा।”

कर्म योग का व्यावहारिक अनुप्रयोग

समभाव की प्राप्ति

जब कर्म करने का मुख्य उद्देश्य हृदय को शुद्ध करना होता है, तब मनुष्य प्रतिकूल परिस्थितियों को भी भगवान द्वारा दिए गए आत्म-उत्थान के अवसर के रूप में देखता है। इससे वह सफलता और असफलता दोनों में समभाव रखने में सक्षम होता है।

आत्म-शुद्धि और कर्मफल समर्पण

जब हम भगवान के सुख के लिए कार्य करते हैं, तब हमारा हृदय स्वतः शुद्ध हो जाता है। इस शुद्धि के फलस्वरूप, हम स्वाभाविक रूप से अपने समस्त कर्मफलों को भगवान को समर्पित करने लगते हैं।

कर्म योग के लाभ: एक सारांश

क्रमलाभविवरण
1आंतरिक शांतिलौकिक कामनाओं से मुक्ति
2आत्म-शुद्धिअंतःकरण की निरंतर शुद्धि
3भक्ति का विकासभगवान के प्रति समर्पण भाव
4समभावसफलता-असफलता में समान दृष्टि
5आध्यात्मिक उन्नतिजन्म-जन्मांतर में प्रगति

निष्कर्ष

कर्म योग एक ऐसा मार्ग है जो हमें न केवल इस जीवन में शांति और संतुष्टि प्रदान करता है, बल्कि हमारी आत्मा के चिरस्थायी कल्याण का भी मार्ग प्रशस्त करता है। यह हमें सिखाता है कि कैसे हम अपने दैनिक जीवन के कर्मों को एक साधना में बदल सकते हैं, जो हमें क्रमशः आध्यात्मिक शिखर की ओर ले जाती है।

इस मार्ग पर चलते हुए, हम धीरे-धीरे यह समझने लगते हैं कि वास्तविक सुख बाहरी वस्तुओं या परिस्थितियों में नहीं, बल्कि हमारे अंतःकरण की शुद्धि में निहित है। जैसे-जैसे हम इस सत्य को आत्मसात करते जाते हैं, हमारा जीवन एक गहन आध्यात्मिक यात्रा में परिवर्तित हो जाता है, जहाँ प्रत्येक कर्म, प्रत्येक चुनौती, और प्रत्येक अनुभव हमारी आत्मा के विकास का एक साधन बन जाता है।

अंत में, कर्म योग हमें यह सिखाता है कि जीवन का वास्तविक लक्ष्य न तो भौतिक समृद्धि है और न ही लौकिक सफलता, बल्कि वह आंतरिक शुद्धि और शांति है जो हमें परमात्मा के निकट ले जाती है। यह मार्ग हमें एक ऐसे जीवन की ओर ले जाता है जहाँ हम अपने प्रत्येक कर्म को एक पवित्र यज्ञ के रूप में देखते हैं।

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