Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 5, श्लोक 19

इहैव तैर्जितः सर्गों येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥19॥

इहैव-इस जीवन में; तै:-उनके द्वारा; र्जितः-विजयी; सर्गः-सृष्टि; येषाम् जिनका; साम्ये-समता में; स्थितम्-स्थित; मन:-मन; निर्दोषम–दोषरहित; हि-निश्चय ही; समम्-समान; ब्रह्म-भगवान; तस्मात् इसलिए; ब्रह्मणि-परम सत्य में; ते वे; स्थिताः-स्थित हैं।

Hindi translation: वे जिनका मन समदृष्टि में स्थित हो जाता है, वे इसी जीवन में जन्म और मरण के चक्र से मुक्ति पा लेते हैं। वे भगवान के समान दोष रहित गुणों से संपन्न हो जाते हैं और परमसत्य में स्थित हो जाते हैं।

समदृष्टि: जीवन को देखने का उच्चतम दृष्टिकोण

प्रस्तावना: ‘सम’ शब्द की गहराई

जीवन में हम अक्सर चीजों को अपने स्वार्थ, पसंद-नापसंद, और भावनाओं के चश्मे से देखते हैं। लेकिन क्या होगा अगर हम इन सबसे ऊपर उठकर देखना सीख जाएँ? यही है ‘समदृष्टि’ का सार, जिसे श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में विस्तार से समझाया है।

‘सम’ का अर्थ: एक नया दृष्टिकोण

श्रीकृष्ण द्वारा प्रयुक्त ‘सम’ शब्द एक गहन अवधारणा है। यह केवल समानता की बात नहीं करता, बल्कि जीवन को देखने के एक उच्च स्तर की ओर इशारा करता है। आइए इसे विस्तार से समझें:

  1. सभी प्राणियों में समानता: हर जीव में एक ही आत्मा का वास
  2. द्वंद्वों से परे: सुख-दुख, हर्ष-शोक से ऊपर उठना
  3. निष्पक्ष दृष्टि: पसंद-नापसंद से मुक्त होकर देखना

समदृष्टि: मुक्ति का मार्ग

संसार से मुक्ति

श्रीकृष्ण बताते हैं कि समदृष्टि रखने वाले व्यक्ति ‘संसार’ से मुक्त हो जाते हैं। यहाँ ‘संसार’ का अर्थ है:

  1. जन्म और मृत्यु का अनवरत चक्र
  2. भौतिक जगत के मोह-माया
  3. कर्मों के बंधन

समदृष्टि की शक्ति

समदृष्टि के बिनासमदृष्टि के साथ
जन्म-मृत्यु चक्र में फँसेमुक्ति की ओर अग्रसर
सांसारिक मोह-माया में उलझेआत्मिक शांति की प्राप्ति
कर्मों के बंधन में बँधेकर्मयोग की साधना

शारीरिक चेतना से परे

समदृष्टि प्राप्त करने के लिए, हमें अपने आप को केवल शरीर के रूप में देखने की सीमित सोच से ऊपर उठना होगा। इसके लिए:

  1. आत्म-चिंतन: “मैं कौन हूँ?” इस प्रश्न पर गहन मनन
  2. शरीर और आत्मा का भेद समझना: शरीर नश्वर है, आत्मा अमर
  3. आध्यात्मिक अभ्यास: ध्यान, योग, और आत्म-साक्षात्कार की साधना

समदृष्टि के मार्ग में बाधाएँ

शारीरिक आसक्ति

जब तक हम अपने आप को केवल शरीर मानते हैं, तब तक समदृष्टि असंभव है। इसके कारण:

  1. सुख-दुख की अनुभूति: शारीरिक सुख-दुख में उलझे रहना
  2. कामनाओं का जाल: निरंतर इच्छाओं और आकांक्षाओं में फँसे रहना
  3. भय और चिंता: शारीरिक सुरक्षा और स्वास्थ्य की निरंतर चिंता

मन की चंचलता

मन की अस्थिरता भी समदृष्टि प्राप्त करने में एक बड़ी बाधा है:

  1. राग-द्वेष: पसंद-नापसंद के भाव
  2. विचारों का तूफान: निरंतर चलते रहने वाले विचारों का प्रवाह
  3. भूत और भविष्य में भटकना: वर्तमान क्षण में न रह पाना

समदृष्टि की ओर: एक यात्रा

आध्यात्मिक साधना

समदृष्टि प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक साधना अत्यंत महत्वपूर्ण है:

  1. ध्यान: मन को शांत और केंद्रित करने का अभ्यास
  2. स्वाध्याय: आत्म-चिंतन और आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन
  3. सत्संग: सद्गुरु और संतों का सानिध्य

कर्मयोग: निष्काम कर्म

कर्मयोग समदृष्टि प्राप्त करने का एक प्रभावी मार्ग है:

  1. फल की इच्छा त्यागना: कर्म करो, फल की चिंता नहीं
  2. समर्पण भाव: सभी कर्म ईश्वर को समर्पित करना
  3. सेवा भाव: निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा करना

भक्तियोग: प्रेम और समर्पण

भक्ति के मार्ग से भी समदृष्टि प्राप्त की जा सकती है:

  1. ईश्वर प्रेम: सर्वव्यापी परमात्मा के प्रति अटूट प्रेम
  2. समर्पण: अपने अहं को ईश्वर में विलीन करना
  3. नाम स्मरण: निरंतर भगवान के नाम का जप

महापुरुषों के उदाहरण

श्री रामचरितमानस से सीख

तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लक्ष्मण के चरित्र द्वारा समदृष्टि का एक उत्कृष्ट उदाहरण दिया है:

सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि।
जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि।।

इसका अर्थ है:
“लक्ष्मण ने अज्ञानी मनुष्य की भांति अपने शरीर के सुखों की उपेक्षा कर भगवान राम और सीता की सेवा की।”

लक्ष्मण का त्याग: एक विश्लेषण

  1. शारीरिक सुखों का त्याग: अपने आराम की परवाह न करना
  2. निःस्वार्थ सेवा: पूर्ण समर्पण भाव से सेवा
  3. आत्म-विस्मरण: अपने अहं को भूलकर दूसरों में लीन होना

महाभारत का संदेश

महाभारत में एक महत्वपूर्ण श्लोक है जो समदृष्टि के महत्व को दर्शाता है:

“यो न कामयते किञ्चित् ब्रह्म भूयाय कल्पते”

अर्थात: “जो मनुष्य अपनी कामनाओं का त्याग कर देता है वह भगवान के समान हो जाता है।”

कामनाओं का त्याग: आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग

  1. इच्छाओं पर नियंत्रण: अनावश्यक इच्छाओं को त्यागना
  2. संतोष की साधना: जो है उसमें संतुष्ट रहना
  3. आत्म-साक्षात्कार: अपने सच्चे स्वरूप को पहचानना

समदृष्टि का व्यावहारिक अभ्यास

दैनिक जीवन में समदृष्टि

समदृष्टि को केवल एक दार्शनिक अवधारणा न मानकर इसे अपने दैनिक जीवन में उतारना महत्वपूर्ण है:

  1. परिवार में:
  • सभी सदस्यों के प्रति समान प्रेम और सम्मान
  • किसी के प्रति पक्षपात न करना
  1. कार्यस्थल पर:
  • सभी सहकर्मियों को समान दृष्टि से देखना
  • प्रतिस्पर्धा की भावना से मुक्त होकर काम करना
  1. समाज में:
  • जाति, धर्म, वर्ग के भेदभाव से ऊपर उठना
  • सभी के कल्याण की भावना रखना

चुनौतियों का सामना

समदृष्टि का अभ्यास करते समय कई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है:

  1. पुराने संस्कार: वर्षों से चली आ रही सोच को बदलना
  2. सामाजिक दबाव: समाज की अपेक्षाओं और रूढ़ियों से टकराव
  3. मानसिक संघर्ष: अपने अंदर के द्वंद्वों से जूझना

इन चुनौतियों का सामना करने के लिए:

  • दृढ़ संकल्प: अपने लक्ष्य पर अडिग रहना
  • निरंतर अभ्यास: धैर्यपूर्वक प्रयास जारी रखना
  • आत्म-परीक्षण: अपने विचारों और कर्मों का निरंतर मूल्यांकन

समदृष्टि के लाभ

व्यक्तिगत स्तर पर

  1. मानसिक शांति: द्वंद्वों से मुक्ति
  2. आत्म-विश्वास: अपने सच्चे स्वरूप की पहचान
  3. जीवन की गुणवत्ता: संतोष और आनंद की प्राप्ति

सामाजिक स्तर पर

  1. सामाजिक समरसता: भेदभाव का अंत
  2. शांति और सद्भाव: समाज में एकता का वातावरण
  3. सामूहिक प्रगति: सभी के कल्याण की भावना से विकास

आध्यात्मिक स्तर पर

  1. आत्म-साक्षात्कार: अपने सच्चे स्वरूप की अनुभूति
  2. मोक्ष की प्राप्ति: जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति
  3. ईश्वर से एकत्व: परम सत्य के साथ तादात्म्य

निष्कर्ष: एक नए युग की ओर

समदृष्टि केवल एक दार्शनिक अवधारणा नहीं है, बल्कि जीवन जीने का एक उच्च मार्ग है। यह हमें सिखाती है:

  1. सभी प्राणियों में एक ही आत्मा का वास है
  2. सुख-दुख, हर्ष-शोक जैसे द्वंद्व क्षणिक हैं
  3. प्रेम और करुणा ही जीवन का सार हैं

जब हम समदृष्टि को अपनाते हैं, तो हम न केवल अपने जीवन को बदलते हैं, बल्कि पूरे समाज और विश्व को एक बेहतर स्थान बनाते हैं ।

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