Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 6, श्लोक 11

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥11॥

शुचौ-स्वच्छ; देशे-स्थान; प्रतिष्ठाप्य-स्थापित करके; स्थिरम्-स्थिर; आसनम् आसन; आत्मनः-जीव का; न-नहीं; अति-अधिक; उच्छ्रितम्-ऊँचा; न-न; अति-अधिक; नीचम्-निम्न; चैल–वस्त्र; अजिन-मृगछाला; कुश-घास; उत्तरम्-मृगछला से ढक कर;

Hindi translation: योगाभ्यास के लिए स्वच्छ स्थान पर भूमि पर कुशा बिछाकर उसे मृगछाला से ढककर और उसके ऊपर वस्त्र बिछाना चाहिए। आसन बहुत ऊँचा या नीचा नहीं होना चाहिए।

योग साधना: बाह्य अभ्यास का महत्व

प्रस्तावना

योग साधना में आंतरिक अभ्यास के साथ-साथ बाह्य अभ्यास का भी विशेष महत्व है। श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में साधना के लिए बाहरी क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया है। इस लेख में हम इन बाहरी क्रियाओं, उनके महत्व और आधुनिक संदर्भ में उनकी प्रासंगिकता पर चर्चा करेंगे।

साधना स्थल का चयन

शुचि देश: पवित्र स्थान का महत्व

श्रीकृष्ण ने ‘शुचौ देशे’ अर्थात पवित्र या स्वच्छ स्थान पर साधना करने का निर्देश दिया है। यह निर्देश विशेष रूप से साधना के प्रारंभिक चरणों के लिए महत्वपूर्ण है।

स्वच्छ वातावरण का प्रभाव

  1. मन की शुद्धता: स्वच्छ वातावरण मन को शुद्ध और स्वच्छ रखने में सहायक होता है।
  2. एकाग्रता: साफ-सुथरा परिवेश ध्यान में एकाग्रता बढ़ाने में मदद करता है।
  3. सकारात्मक ऊर्जा: पवित्र स्थान सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर होता है, जो साधना को गहराई प्रदान करता है।

उन्नत साधकों के लिए स्थान का महत्व

यद्यपि प्रारंभिक चरणों में बाहरी वातावरण का प्रभाव अधिक होता है, लेकिन उन्नत साधक किसी भी परिस्थिति में आंतरिक शुद्धता बनाए रख सकते हैं।

आसन: साधना का आधार

प्राचीन काल में आसन

प्राचीन काल में साधना के लिए विशेष प्रकार के आसनों का उपयोग किया जाता था:

  1. कुश की चटाई: आधुनिक योग मैट के समान कार्य करती थी।
  • तापमान रोधक
  • आरामदायक
  1. मृगछला: हिरण की खाल से बना आसन
  • विषैले कीटों से सुरक्षा
  • साधक को सुरक्षित रखने में सहायक

आसन की ऊँचाई का महत्व

आसन की उचित ऊँचाई साधना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है:

  • अति ऊँचा आसन: गिरने का जोखिम
  • अति नीचा आसन: भूमि पर रेंगने वाले कीटों से बाधा

आधुनिक समय में आसन

आधुनिक समय में भी आसन के चयन में कुछ बातों का ध्यान रखना आवश्यक है:

  1. आरामदायक स्थिति
  2. शरीर को सीधा रखने में सहायक
  3. लंबे समय तक बैठने में सक्षम

प्राचीन और आधुनिक निर्देशों की तुलना

पहलूप्राचीन निर्देशआधुनिक संदर्भ
स्थानपवित्र, स्वच्छशांत, व्यवधान रहित
आसनकुश चटाई, मृगछलायोग मैट, आरामदायक कुर्सी
ऊँचाईमध्यमएर्गोनॉमिक
सुरक्षाकीटों से बचावशारीरिक आराम
उद्देश्यभगवान का चिंतनमन की एकाग्रता

बाह्य अभ्यास का आंतरिक प्रभाव

शारीरिक स्थिरता का महत्व

  1. मन की स्थिरता: शरीर स्थिर होने से मन भी स्थिर होता है।
  2. ऊर्जा का संरक्षण: सही आसन ऊर्जा के अपव्यय को रोकता है।
  3. ध्यान में गहराई: शारीरिक आराम गहन ध्यान को संभव बनाता है।

बाहरी वातावरण का आंतरिक अनुभव पर प्रभाव

  1. शांति का अनुभव: स्वच्छ और शांत वातावरण आंतरिक शांति को बढ़ावा देता है।
  2. सकारात्मक विचार: पवित्र स्थान सकारात्मक विचारों को जन्म देता है।
  3. गहन एकाग्रता: बाधाओं से मुक्त वातावरण गहन एकाग्रता में सहायक होता है।

आधुनिक जीवन में बाह्य अभ्यास का महत्व

शहरी जीवन की चुनौतियाँ

  1. शोर-शराबा: शहरों में शांत स्थान खोजना कठिन हो सकता है।
  2. समय की कमी: व्यस्त जीवनशैली में नियमित साधना के लिए समय निकालना चुनौतीपूर्ण।
  3. तनावपूर्ण वातावरण: कार्यस्थल और घर पर तनाव का माहौल।

समाधान और सुझाव

  1. घर में साधना स्थल: घर के किसी कोने को साधना के लिए समर्पित करें।
  2. प्रकृति में समय: सप्ताहांत पर प्रकृति के बीच साधना करें।
  3. डिजिटल डिटॉक्स: साधना के समय इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से दूर रहें।
  4. समय प्रबंधन: दैनिक दिनचर्या में साधना को प्राथमिकता दें।

बाह्य और आंतरिक अभ्यास का समन्वय

संतुलित दृष्टिकोण का महत्व

  1. बाह्य अभ्यास: शरीर और वातावरण की तैयारी।
  2. आंतरिक अभ्यास: मन और आत्मा का शुद्धिकरण।

समन्वय के लाभ

  1. पूर्ण विकास: शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर उन्नति।
  2. गहन अनुभव: बाहरी शांति आंतरिक शांति को बढ़ावा देती है।
  3. दीर्घकालिक लाभ: नियमित अभ्यास से जीवन की गुणवत्ता में सुधार।

निष्कर्ष

श्रीकृष्ण द्वारा बताए गए बाह्य अभ्यास आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने वे प्राचीन काल में थे। यद्यपि आधुनिक जीवन की अपनी चुनौतियाँ हैं, फिर भी इन निर्देशों को अपनाकर हम अपनी साधना को और अधिक प्रभावी बना सकते हैं।

बाह्य अभ्यास का मुख्य उद्देश्य भगवान के चिंतन में लीन होना है, जो कि प्राचीन और आधुनिक दोनों कालों में समान है। इन बाहरी क्रियाओं को अपनाकर हम न केवल अपनी साधना को गहराई प्रदान कर सकते हैं, बल्कि दैनिक जीवन में भी शांति और संतुलन ला सकते हैं।

आइए, हम श्रीकृष्ण के इन उपदेशों को अपने जीवन में उतारें और एक संतुलित, शांतिपूर्ण और आध्यात्मिक जीवन की ओर अग्रसर हों। याद रखें, बाहरी परिस्थितियाँ चाहे जो भी हों, अंततः हमारा लक्ष्य आंतरिक शांति और आत्मज्ञान प्राप्त करना है। बाह्य अभ्यास इस यात्रा में हमारे मित्र और सहायक हैं।



























Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button