Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 5, श्लोक 23

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥23॥

शक्नोति-समर्थ है; इह-एव–इसी शरीर में; यः-जो; सोढुम्-सहन करना; प्राक्-पहले; शरीर-शरीर; विमोक्षणात्-त्याग करना; काम इच्छा; क्रोध-क्रोध से; उद्भवम्-उत्पन्न वेगम्-बल से; सः-वह; युक्तः-योगी; सः-वही व्यक्ति; सुखी-सुखी; नरः-व्यक्ति।

Hindi translation: वे मनुष्य ही योगी हैं जो शरीर को त्यागने से पूर्व कामनाओं और क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होते हैं, केवल वही संसार मे सुखी रहते हैं।

मानव शरीर और आत्मिक उत्थान: एक विस्तृत विवेचना

प्रस्तावना

मानव जीवन एक अनमोल उपहार है, जो हमें आत्मिक उत्थान का अद्वितीय अवसर प्रदान करता है। इस लेख में हम इस महत्वपूर्ण विषय पर गहराई से चर्चा करेंगे, यह समझने का प्रयास करेंगे कि कैसे हमारा शरीर आध्यात्मिक विकास का माध्यम बन सकता है।

मानव शरीर: आत्मिक यात्रा का वाहन

विवेक शक्ति: मानव का विशिष्ट गुण

मानव शरीर में ही आत्मा को भगवद्प्राप्ति के परम लक्ष्य तक पहुँचने का सुनहरा अवसर प्राप्त होता है। यह शरीर हमें विवेक शक्ति से सम्पन्न करता है, जो हमें पशु जगत से अलग करती है। जहाँ पशु अपनी प्राकृतिक प्रवृत्तियों के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं, वहीं मनुष्य के पास चुनाव करने और अपने व्यवहार को नियंत्रित करने की क्षमता होती है।

कामनाओं और क्रोध पर नियंत्रण

श्रीकृष्ण का उपदेश है कि हमें अपनी विवेक शक्ति का उपयोग कामनाओं और क्रोध पर अंकुश लगाने के लिए करना चाहिए। यहाँ ‘काम’ शब्द केवल यौन वासना तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सभी प्रकार के भौतिक सुखों की लालसा को दर्शाता है। जब हमारी इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं, तब मन में क्रोध उत्पन्न होता है।

आत्म-नियंत्रण का महत्व

पशु और मानव में अंतर

कामना और क्रोध की शक्ति को नदी की तेज धारा से तुलना दी गई है। पशु भी इन भावनाओं से प्रभावित होते हैं, लेकिन उनके पास इन्हें नियंत्रित करने की क्षमता नहीं होती। मनुष्य, अपनी विवेक शक्ति के कारण, इन भावनाओं को समझने और नियंत्रित करने में सक्षम है।

विवेक का प्रयोग

श्रीकृष्ण हमें सिखाते हैं कि हमें अपनी बुद्धि का प्रयोग करके कामनाओं और क्रोध के वेग को सहन करना सीखना चाहिए। यह केवल लज्जा या भय के कारण नहीं, बल्कि गहन समझ और ज्ञान के आधार पर होना चाहिए।

आत्मिक उत्थान की ओर

भौतिक सुखों की क्षणिकता

श्रीमद्भागवतम् में कहा गया है:

नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजा ये।
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धयेद्यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ।।
(श्रीमद्भागवतम्-5:5:1)

इसका अर्थ है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य केवल इंद्रिय सुख प्राप्त करना नहीं है, क्योंकि ये सुख तो पशुओं को भी प्राप्त हैं। इसके बजाय, हमें आत्म-शुद्धि और परमानंद की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए।

योग का महत्व

जो व्यक्ति अपनी विवेक शक्ति का सही प्रयोग करता है, वह इसी जीवन में योगी बन जाता है। वह अपनी कामनाओं और क्रोध पर नियंत्रण पा लेता है, जिससे उसे परम सुख की अनुभूति होती है।

निष्कर्ष

मानव शरीर एक अमूल्य उपहार है, जो हमें आत्मिक उत्थान का अवसर प्रदान करता है। हमारी विवेक शक्ति हमें पशु जगत से अलग करती है और हमें अपने विचारों, भावनाओं और कर्मों पर नियंत्रण रखने की क्षमता देती है। श्रीकृष्ण के उपदेशों को अपनाकर और अपनी बुद्धि का सही प्रयोग करके, हम अपने जीवन को साधना का माध्यम बना सकते हैं और परम सत्य की ओर अग्रसर हो सकते हैं।

इस यात्रा में, हमें निरंतर प्रयासरत रहना होगा, अपनी कमजोरियों पर विजय पाना होगा, और अपने आत्मिक लक्ष्य के प्रति दृढ़ रहना होगा। यह मार्ग कठिन हो सकता है, लेकिन यह हमें असीम आनंद और शांति की ओर ले जाता है। अंततः, यही मानव जीवन का सच्चा उद्देश्य है – अपने दिव्य स्वरूप को पहचानना और उसे प्राप्त करना।

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