Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 6, श्लोक 23

तं विद्यादः दुःखसंयोगवियोगं योगसज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥23॥


तम्-उसको; विद्यात्-तुम जानो; दु:ख-संयोग-वियोगम्-वियोग से दुख की अनुभूति; योग-संज्ञितम्-योग के रूप में ज्ञान; निश्चयेन-दृढ़तापूर्वक; योक्तव्यो–अभ्यास करना चाहिए; योग-योग; अनिर्विण्णचेतसा-अविचलित मन के साथ।

Hindi translation: दख के संयोग से वियोग की अवस्था को योग के रूप में जाना जाता है। इस योग का दृढ़तापूर्वक कृतसंकल्प के साथ निराशा से मुक्त होकर पालन करना चाहिए।

माया और दिव्य प्रकाश: एक आध्यात्मिक यात्रा

प्रस्तावना: भौतिक जगत की वास्तविकता

हमारे चारों ओर का यह भौतिक संसार, जिसे हम अपनी इंद्रियों से अनुभव करते हैं, वास्तव में माया का एक विस्तृत जाल है। यह एक ऐसा आवरण है जो हमें सत्य से दूर रखता है और हमें भ्रम में डाले रहता है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने इस भौतिक जगत को “दुःखालयम् अशाश्वतम्” कहा है, अर्थात यह दुःखों का घर है और अस्थायी है।

माया का स्वरूप

माया को समझने के लिए, आइए हम इसके कुछ प्रमुख पहलुओं पर विचार करें:

  1. भ्रम का आवरण: माया हमारी आँखों पर एक पर्दा डाल देती है, जिससे हम वास्तविकता को नहीं देख पाते।
  2. अस्थायी सुख का प्रलोभन: यह हमें क्षणिक सुखों की ओर आकर्षित करती है, जो अंततः दुःख में परिणत होते हैं।
  3. भौतिक आसक्ति: माया हमें भौतिक वस्तुओं और संबंधों से जोड़ती है, जिससे हम अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाते हैं।

माया और अंधकार: एक समानता

माया को अक्सर अंधकार के साथ तुलना की जाती है। यह एक सटीक उपमा है, क्योंकि दोनों में कई समानताएँ हैं:

  1. ज्ञान का अभाव: जैसे अंधकार में हम वस्तुओं को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, वैसे ही माया में हम आध्यात्मिक सत्य को नहीं समझ पाते।
  2. भय और असुरक्षा: अंधेरे में जैसे हम असुरक्षित महसूस करते हैं, वैसे ही माया में हम अपने वास्तविक स्वरूप से दूर होकर भयभीत रहते हैं।
  3. मार्गदर्शन की आवश्यकता: जैसे अंधेरे में हमें प्रकाश की आवश्यकता होती है, वैसे ही माया से बाहर निकलने के लिए हमें आध्यात्मिक मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है।

माया का प्रभाव: दुःख और भ्रम

माया का प्रभाव हमारे जीवन पर गहरा होता है:

  • आत्म-विस्मृति: हम अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाते हैं और अपने को शरीर समझने लगते हैं।
  • मिथ्या अहंकार: हम अपने को कर्ता समझने लगते हैं, जबकि वास्तव में हम ईश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य कर रहे होते हैं।
  • असंतोष: हम निरंतर भौतिक वस्तुओं और उपलब्धियों की खोज में रहते हैं, लेकिन कभी संतुष्ट नहीं होते।

दिव्य प्रकाश: माया से मुक्ति का मार्ग

माया के अंधकार से बाहर निकलने का एकमात्र मार्ग है – दिव्य प्रकाश। यह प्रकाश क्या है? यह भगवान का प्रेम और ज्ञान है जो हमारे हृदय में प्रवेश करता है।

श्रीकृष्ण: दिव्य प्रकाश का स्रोत

श्रीकृष्ण को सूर्य के समान माना जाता है। जैसे सूर्य अपने प्रकाश से अंधकार को दूर करता है, वैसे ही श्रीकृष्ण की कृपा माया के अंधकार को मिटा देती है।

चैतन्य महाप्रभु ने इसे बहुत सुंदर ढंग से व्यक्त किया है:

कृष्ण सूर्यसम, माया हय अन्धकार।
यहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।।
(चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला-22.31)

इसका अर्थ है: “भगवान प्रकाश के समान है और माया अंधकार के समान है। जिस प्रकार से अंधकार के पास प्रकाश करने की कोई शक्ति नहीं होती और उसी प्रकार से माया कभी भगवान पर हावी नहीं हो सकती।”

दिव्य प्रकाश की विशेषताएँ

  1. सर्वव्यापी: यह प्रकाश हर जगह मौजूद है, बस हमें इसे देखने की आँखें चाहिए।
  2. अविनाशी: यह कभी समाप्त नहीं होता, हमेशा उपलब्ध रहता है।
  3. शुद्धिकारक: यह हमारे मन और बुद्धि को शुद्ध करता है।
  4. मार्गदर्शक: यह हमें सही मार्ग दिखाता है और भटकने से बचाता है।

योग: दिव्य प्रकाश से जुड़ने का माध्यम

योग का शाब्दिक अर्थ है “जोड़ना”। यह हमारी आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का माध्यम है। योग के माध्यम से हम माया के प्रभाव से मुक्त होकर दिव्य प्रकाश में प्रवेश कर सकते हैं।

योग के प्रकार

  1. कर्म योग: निष्काम कर्म के माध्यम से ईश्वर से जुड़ना।
  2. भक्ति योग: प्रेम और समर्पण के द्वारा ईश्वर से जुड़ना।
  3. ज्ञान योग: आत्म-ज्ञान और ब्रह्म-ज्ञान के माध्यम से ईश्वर को जानना।
  4. राज योग: ध्यान और समाधि के द्वारा ईश्वर से एकाकार होना।

योग साधना के लाभ

योग का प्रकारमुख्य लाभमाया पर प्रभाव
कर्म योगअनासक्तिभौतिक फलों से मुक्ति
भक्ति योगदिव्य प्रेमभौतिक आसक्ति का नाश
ज्ञान योगआत्म-बोधअज्ञान का नाश
राज योगमन की शांतिविक्षेपों से मुक्ति

योग सिद्धि: परम लक्ष्य की प्राप्ति

योग साधना का अंतिम लक्ष्य है योग सिद्धि। यह वह अवस्था है जहाँ साधक पूर्णतः माया के प्रभाव से मुक्त होकर दिव्य चेतना में स्थित हो जाता है।

योग सिद्धि के दो प्रमुख परिणाम

  1. भगवान की कृपा प्राप्त करना: यह परम आनंद की अवस्था है जहाँ साधक को भगवान का साक्षात्कार होता है।
  2. दुखों से छुटकारा पाना: माया के प्रभाव से मुक्त होने के कारण, साधक सभी भौतिक दुखों से ऊपर उठ जाता है।

योग सिद्धि की विशेषताएँ

  • स्थिर बुद्धि: योगी की बुद्धि स्थिर हो जाती है और वह हर परिस्थिति में समभाव रखता है।
  • निरंतर आनंद: बाहरी परिस्थितियों से निरपेक्ष, योगी सदैव आनंदमय रहता है।
  • सर्वभूतहित: योगी सभी प्राणियों के कल्याण में रत रहता है।
  • आत्म-साक्षात्कार: योगी को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध हो जाता है।

योग साधना: एक व्यावहारिक दृष्टिकोण

योग सिद्धि एक उच्च अवस्था है, लेकिन इसे प्राप्त करने के लिए नियमित और दृढ़ अभ्यास की आवश्यकता होती है। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि दृढ़तापूर्वक अभ्यास द्वारा ही योग में सिद्धता की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है।

योग साधना के लिए व्यावहारिक सुझाव

  1. नियमितता: प्रतिदिन एक निश्चित समय पर साधना करें।
  2. धैर्य: परिणामों की प्रतीक्षा किए बिना निरंतर अभ्यास करें।
  3. सत्संग: साधु-संतों और आध्यात्मिक व्यक्तियों के संग में रहें।
  4. अध्ययन: धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथों का नियमित अध्ययन करें।
  5. सेवा भाव: निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा करें।

बाधाओं से निपटना

योग साधना के मार्ग में कई बाधाएँ आ सकती हैं। इनसे निपटने के कुछ उपाय:

  • आलस्य: दृढ़ संकल्प और नियमित दिनचर्या से इस पर विजय पाएँ।
  • संदेह: गुरु या आध्यात्मिक मार्गदर्शक से चर्चा करके संदेहों का समाधान करें।
  • निराशा: छोटी-छोटी उपलब्धियों पर ध्यान देकर प्रेरणा प्राप्त करें।
  • भौतिक आकर्षण: वैराग्य का अभ्यास करें और भौतिक वस्तुओं की क्षणभंगुरता को समझें।

निष्कर्ष: माया से मुक्ति की ओर

माया का जाल सूक्ष्म और शक्तिशाली है, लेकिन यह अजेय नहीं है। दिव्य प्रकाश की शक्ति के सामने माया का अंधकार टिक नहीं सकता। योग साधना हमें इस दिव्य प्रकाश से जोड़ने का एक प्रभावी माध्यम है।

जैसे-जैसे हम योग के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं, हम पाते हैं कि माया का प्रभाव कम होता जाता है और हमारे जीवन में दिव्य प्रकाश का प्रवेश होता जाता है। यह एक क्रमिक प्रक्रिया है जिसमें धैर्य और दृढ़ता की आवश्यकता होती है।

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