Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 6, श्लोक 27

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतकल्मषम् ॥27॥
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प्रशान्त-शान्तिप्रियः मनसम्–मन; हि-निश्चय ही; एनम् यह; योगिनम्-योगी; सुखम्-उत्तमम्-परम आनन्द; उपैति-प्राप्त करता है; शान्त-रजसम्–जिसकी कामनाएँ शान्त हो चुकी हैं; ब्रह्म-भूतम्-भगवद् अनुभूति से युक्त; अकल्मषम्-पाप रहित।

Hindi translation: जिस योगी का मन शांत हो जाता है और जिसकी वासनाएँ वश में हो जाती हैं एवं जो निष्पाप है तथा जो प्रत्येक वस्तु का संबंध भगवान के साथ जोड़कर देखता है, उसे अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है।

मन की शक्ति: आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग

प्रस्तावना

मनुष्य के जीवन में मन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमारे विचार, भावनाएँ और कर्म सभी मन से प्रभावित होते हैं। आध्यात्मिक साधना में मन को नियंत्रित करना और उसे ईश्वर की ओर केंद्रित करना एक महत्वपूर्ण पहलू है। आइए इस विषय पर गहराई से विचार करें।

मन का नियंत्रण: आध्यात्मिक यात्रा का प्रथम चरण

इंद्रियों से मन का विमुखीकरण

सिद्ध योगी अपने मन को इंद्रिय विषयों से हटाने में निपुण होता है। यह प्रक्रिया निम्नलिखित चरणों में होती है:

  1. जागरूकता: अपने विचारों और इंद्रियों के प्रति सचेत रहना।
  2. विवेक: इंद्रिय विषयों के प्रति आसक्ति को पहचानना।
  3. अभ्यास: धीरे-धीरे मन को इंद्रिय विषयों से हटाना।
  4. दृढ़ता: इस प्रक्रिया में निरंतरता बनाए रखना।

ईश्वर में मन का केंद्रीकरण

मन को इंद्रियों से हटाकर ईश्वर की ओर मोड़ना आध्यात्मिक साधना का अगला महत्वपूर्ण चरण है। इसमें शामिल हैं:

  1. ध्यान: ईश्वर के स्वरूप या नाम पर ध्यान केंद्रित करना।
  2. भक्ति: ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव विकसित करना।
  3. सेवा: ईश्वर की सेवा के रूप में कर्म करना।
  4. स्मरण: हर पल ईश्वर का स्मरण करना।

उन्नत साधक की विशेषताएँ

भावावेश पर नियंत्रण

सिद्ध योगी अपने भावावेशों को नियंत्रित कर लेता है। यह निम्नलिखित तरीकों से प्राप्त किया जाता है:

  1. आत्म-निरीक्षण: अपने भावों का निरंतर अवलोकन।
  2. संयम: भावनाओं पर नियंत्रण रखने का अभ्यास।
  3. समता: सुख-दुःख में समान भाव रखना।
  4. प्रसन्नता: हर परिस्थिति में आंतरिक शांति बनाए रखना।

मन की पूर्ण शांति

उन्नत साधक का मन पूर्णतया शांत हो जाता है। इस अवस्था की विशेषताएँ हैं:

  1. निर्विकल्प अवस्था: विचारों का पूर्ण शमन।
  2. आत्मानुभूति: आत्मा के साथ तादात्म्य।
  3. ब्रह्मानंद: परम आनंद की अनुभूति।
  4. अद्वैत दर्शन: सर्वत्र ईश्वर का दर्शन।

ईश्वर-केंद्रित जीवन

स्वाभाविक आकर्षण

उन्नत साधक का मन स्वाभाविक रूप से ईश्वर की ओर आकर्षित होता है। इसके लक्षण हैं:

  1. निरंतर स्मरण: हर पल ईश्वर का चिंतन।
  2. प्रेमपूर्ण भक्ति: ईश्वर के प्रति गहन प्रेम।
  3. आत्म-समर्पण: पूर्ण रूप से ईश्वर के प्रति समर्पित जीवन।
  4. दिव्य दृष्टि: सभी में ईश्वर का दर्शन।

नारद मुनि का उपदेश

नारद भक्तिदर्शन में वर्णित है:

तत् प्राप्य तदेवालोक्यति तदेव श्रृणोति ।
तदेव भाषयति तदेव चिन्तयति ।।
(नारद भक्तिदर्शन, सूत्र-55)

इसका अर्थ है:

  1. दर्शन: साधक सर्वत्र ईश्वर को ही देखता है।
  2. श्रवण: वह केवल ईश्वर से संबंधित बातें ही सुनता है।
  3. वार्तालाप: उसकी वार्ता केवल ईश्वर पर केंद्रित होती है।
  4. चिंतन: उसका मन निरंतर ईश्वर का चिंतन करता है।

आध्यात्मिक प्रगति के संकेत

आंतरिक आनंद की अनुभूति

साधक की आध्यात्मिक प्रगति का एक प्रमुख संकेत है उसके भीतर बढ़ता हुआ आनंद। इसकी विशेषताएँ हैं:

  1. स्थायी प्रसन्नता: बाहरी परिस्थितियों से अप्रभावित आनंद।
  2. शांति: गहन आंतरिक शांति की अनुभूति।
  3. संतोष: जीवन के प्रति पूर्ण संतुष्टि।
  4. करुणा: सभी प्राणियों के प्रति करुणा का भाव।

मन का वशीकरण

आध्यात्मिक उन्नति के साथ मन पर नियंत्रण बढ़ता जाता है। इसके लक्षण हैं:

  1. एकाग्रता: गहन ध्यान की क्षमता।
  2. विचार-नियंत्रण: नकारात्मक विचारों पर नियंत्रण।
  3. भावनात्मक स्थिरता: भावनाओं में उतार-चढ़ाव का कम होना।
  4. आत्म-अनुशासन: जीवन के हर क्षेत्र में अनुशासन।

ब्रह्मभूत अवस्था

कामवासना और पाप से मुक्ति

श्रीकृष्ण के अनुसार, ब्रह्मभूत अवस्था प्राप्त करने के लिए आवश्यक है:

  1. शान्तरजसंः: कामवासना से मुक्ति।
  2. अकल्मषम्: पापों से मुक्ति।

परम आनंद की प्राप्ति

ब्रह्मभूत अवस्था में साधक को प्राप्त होता है:

  1. सुखम-उत्तमम्: परम आनंद की अनुभूति।
  2. आत्मानुभूति: आत्मा के साथ एकाकारता।
  3. ब्रह्मानंद: ब्रह्म के साथ तादात्म्य।
  4. मोक्ष: जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति।

निष्कर्ष

मन का नियंत्रण और ईश्वर में केंद्रीकरण आध्यात्मिक उन्नति का मूल आधार है। यह एक क्रमिक प्रक्रिया है जिसमें साधक धीरे-धीरे अपने मन को इंद्रिय विषयों से हटाकर ईश्वर की ओर मोड़ता है। इस यात्रा में नारद मुनि के उपदेश मार्गदर्शक का काम करते हैं। जैसे-जैसे साधक प्रगति करता है, उसके भीतर का आनंद बढ़ता जाता है और उसका मन अधिक से अधिक वश में होता जाता है। अंततः वह ब्रह्मभूत अवस्था को प्राप्त करता है, जहाँ वह परम आनंद का अनुभव करता है। यह आध्यात्मिक यात्रा हर व्यक्ति के लिए अनूठी और व्यक्तिगत होती है, लेकिन इसका लक्ष्य सभी के लिए एक ही है – आत्मानुभूति और परमानंद की प्राप्ति।

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