भगवद गीता: अध्याय 6, श्लोक 9
सुहृन्मित्रायुदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥9॥
सु-हत्-शुभ चिन्तक के प्रति; मित्र-मित्र; अरि-शत्रु; उदासीन-तटस्थ व्यक्ति; मध्य-स्थ-मध्यस्थता करना; द्वेष्य ईर्ष्यालु, बन्धुषु-संबंधियों; साधुषु-पुण्य आत्माएँ; अपि-उसी प्रकार से; च-तथा; पापेषु–पापियों के; सम-बुद्धिः-निष्पक्ष बुद्धि वाला; विशिष्यते-श्रेष्ठ हैं;
Hindi translation: योगी शुभ चिन्तकों, मित्रों, शत्रुओं पुण्यात्माओं और पापियों को निष्पक्ष होकर समान भाव से देखते हैं। इस प्रकार जो योगी मित्र, सहयोगी, शत्रु को समदृष्टि से देखते हैं और शत्रुओं एवं सगे संबंधियों के प्रति तटस्थ रहते हैं तथा पुण्यात्माओं और पापियों के बीच निष्पक्ष रहते हैं, वे मनुष्यों के मध्य विशिष्ट माने जाते हैं।
योग दर्शन: समदृष्टि की महत्ता
प्रस्तावना
मानव जीवन में मित्र और शत्रु के प्रति व्यवहार में अंतर होना स्वाभाविक है। परंतु, योग दर्शन हमें एक ऐसी उच्च अवस्था की ओर ले जाता है जहाँ यह भेद मिट जाता है। आइए, इस गहन विषय पर विस्तार से चर्चा करें।
समदृष्टि: एक योगी का गुण
समदृष्टि का अर्थ
समदृष्टि का अर्थ है सभी प्राणियों को समान भाव से देखना। यह एक ऐसी मानसिक अवस्था है जहाँ व्यक्ति किसी भी जीव के प्रति पक्षपात नहीं करता।
सिद्ध योगी की विशेषता
सिद्ध योगी, जो भगवद्ज्ञान से परिपूर्ण होता है, संपूर्ण सृष्टि को भगवान का ही रूप मानता है। यह दृष्टिकोण उसे सभी प्राणियों के प्रति समान व्यवहार करने में सक्षम बनाता है।
समदृष्टि की विभिन्न अवस्थाएँ
समदृष्टि की तीन प्रमुख अवस्थाएँ हैं:
- आत्मा की समानता: सभी जीव दिव्य आत्मा के रूप में।
- भगवान का निवास: हर प्राणी में भगवान का वास।
- भगवान का साक्षात् रूप: सभी में भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन।
आत्मा की समानता
इस अवस्था में योगी समझता है कि सभी जीव एक ही दिव्य आत्मा के अंश हैं। यह समझ उसे सबके प्रति समान व्यवहार करने की प्रेरणा देती है।
“आत्मावत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डित।”
अर्थात, जो व्यक्ति सभी प्राणियों में अपनी आत्मा का दर्शन करता है, वही वास्तविक पंडित है।
भगवान का निवास
इस दृष्टिकोण में, योगी मानता है कि भगवान हर प्राणी के भीतर विराजमान हैं। यह विचार सभी जीवों के प्रति आदर भाव उत्पन्न करता है।
भगवान का साक्षात् रूप
यह समदृष्टि की सर्वोच्च अवस्था है। इस स्तर पर पहुँचा हुआ योगी हर वस्तु और प्राणी में भगवान का प्रत्यक्ष रूप देखता है।
वैदिक ग्रंथों में समदृष्टि का वर्णन
वैदिक साहित्य में समदृष्टि की अवधारणा को बार-बार दोहराया गया है:
- ईशोपनिषद:
“ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।”
अर्थात, यह संपूर्ण ब्रह्मांड ईश्वर से व्याप्त है।
- पुरुष सूक्तम्:
“पुरुष एवेदं सर्वं”
अर्थात, यह सब कुछ परमात्मा ही है।
हनुमान जी: समदृष्टि के उदाहरण
श्री राम के परम भक्त हनुमान जी समदृष्टि के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। उनके शब्दों में:
“सीय राममय सब जग जानी।” (रामचरितमानस)
अर्थात, मैं सारे जगत को सीता और राम के रूप में देखता हूँ।
समदृष्टि का महत्व
समदृष्टि न केवल आध्यात्मिक विकास का संकेत है, बल्कि यह सामाजिक सद्भाव का भी आधार है। यह दृष्टिकोण:
- भेदभाव को समाप्त करता है
- करुणा और प्रेम को बढ़ावा देता है
- आंतरिक शांति प्रदान करता है
- समाज में एकता लाता है
समदृष्टि विकसित करने के उपाय
उपाय | विवरण | लाभ |
---|---|---|
ध्यान | नियमित ध्यान अभ्यास | मन की एकाग्रता बढ़ती है |
सेवा भाव | निःस्वार्थ सेवा | दूसरों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ती है |
अध्ययन | आध्यात्मिक ग्रंथों का पठन | ज्ञान और समझ में वृद्धि होती है |
सत्संग | साधु-संतों का साथ | सकारात्मक विचारों का विकास होता है |
निष्कर्ष
समदृष्टि योग दर्शन का एक महत्वपूर्ण पहलू है। यह न केवल व्यक्तिगत आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है, बल्कि एक शांतिपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण समाज के निर्माण में भी योगदान देता है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो योगी सभी प्राणियों में समदृष्टि रखता है, वह उच्च स्तर का साधक है।
समदृष्टि का अभ्यास करके हम न केवल अपने जीवन में शांति और आनंद ला सकते हैं, बल्कि दूसरों के जीवन को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकते हैं। यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जो व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर परिवर्तन ला सकता है।
आइए, हम सब मिलकर इस उच्च आदर्श की ओर बढ़ें और अपने जीवन में समदृष्टि को उतारने का प्रयास करें। यही सच्चे योग का मार्ग है, और यही मानवता का सार है।
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