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भगवद गीता: अध्याय 2, श्लोक 36

अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम् ॥36॥

https://www.holy-bhagavad-gita.org/public/audio/002_036.mp3अवाच्य-वादान-न कहने योग्यः च भी; बहून् कईः वदिष्यन्ति–कहेंगे; तब-तुम्हारे; अहिताः-शत्रु; निन्दन्तः-निन्दा; तब-तुम्हारी; सामर्थ्यम्-शक्ति को; ततः-उसकी अपेक्षा; दुःख-तरम्-अति पीड़ादायक; नु–निसन्देह; किम्-क्या;

Hindi translation: तुम्हारे शत्रु तुम्हारी निन्दा करेंगे और कटु शब्दों से तुम्हारा मानमर्दन करेंगे और तुम्हारी सामर्थ्य का उपहास उड़ायेंगें। तुम्हारे लिए इससे पीड़ादायक और क्या हो सकता है?

अर्जुन का युद्ध से पलायन: एक गंभीर विश्लेषण

महाभारत के महान युद्ध के मैदान में, अर्जुन के मन में उठे संदेह और उसके द्वारा युद्ध से पलायन की संभावना एक ऐसा विषय है जो न केवल एक व्यक्ति के नैतिक संकट को दर्शाता है, बल्कि समाज के मूल्यों और प्रतिष्ठा की अवधारणाओं पर भी प्रकाश डालता है। इस लेख में हम अर्जुन के इस निर्णय के संभावित परिणामों और उसके व्यापक प्रभावों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

युद्ध से पलायन: एक क्षत्रिय के लिए अपमान

क्षत्रिय धर्म और समाज की अपेक्षाएँ

क्षत्रिय वर्ण के एक प्रमुख योद्धा होने के नाते, अर्जुन से समाज की अपेक्षाएँ बहुत ऊँची थीं। युद्ध में भाग लेना और अपने कर्तव्य का पालन करना उसका धर्म था। युद्ध से पलायन न केवल उसके व्यक्तिगत चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगाता, बल्कि पूरे क्षत्रिय वर्ण की प्रतिष्ठा को भी प्रभावित करता।

वीर योद्धाओं की दृष्टि में गिरता सम्मान

यदि अर्जुन युद्ध से पलायन करता, तो उसका सम्मान न केवल कौरवों के बीच, बल्कि अपने साथी पांडवों और अन्य वीर योद्धाओं के बीच भी गिर जाता। युद्ध के लिए एकत्रित हुए योद्धा उसे कायर और अपने कर्तव्य से विमुख होने वाला व्यक्ति मान सकते थे।

निंदा और अपमान: समाज की प्रतिक्रिया

‘निन्दन्त’ शब्द का महत्व

श्रीकृष्ण द्वारा प्रयुक्त ‘निन्दन्त’ शब्द गहरे अर्थ को व्यक्त करता है। यह केवल आलोचना नहीं, बल्कि समाज द्वारा की जाने वाली कठोर और व्यापक निंदा को दर्शाता है। अर्जुन के लिए यह निंदा उसके पूरे जीवन और वंश पर एक धब्बा बन सकती थी।

‘अवाच्यवादांश्च’: अपशब्दों का प्रयोग

‘अवाच्यवादांश्च’ शब्द उन कटु और अपमानजनक टिप्पणियों की ओर इशारा करता है जो अर्जुन के विरुद्ध की जा सकती थीं। इनमें ‘नपुंसक’ जैसे शब्द शामिल हो सकते थे, जो न केवल उसकी वीरता पर प्रश्नचिह्न लगाते, बल्कि उसके पुरुषत्व पर भी आघात करते।

दुर्योधन की संभावित प्रतिक्रिया

व्यंग्य और अपमान

अर्जुन का प्रमुख शत्रु दुर्योधन, युद्ध से उसके पलायन का पूरा लाभ उठा सकता था। वह अर्जुन के बारे में ऐसे अपमानजनक शब्दों का प्रयोग कर सकता था:

“देखो युद्ध छोड़कर भागे इस लाचार अर्जुन को, जैसे कि कोई टांगों के बीच पूंछ रखने वाला कुत्ता हो।”

यह उपमा न केवल अपमानजनक है, बल्कि अर्जुन के व्यक्तित्व और प्रतिष्ठा पर एक गहरा आघात भी है।

राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव

दुर्योधन की इस प्रकार की टिप्पणियाँ केवल व्यक्तिगत अपमान तक सीमित नहीं रहतीं। वे पांडवों के पूरे पक्ष को कमजोर कर सकती थीं और युद्ध के परिणाम को भी प्रभावित कर सकती थीं।

श्रीकृष्ण का उद्देश्य: अर्जुन को उसके कर्तव्य का स्मरण

नैतिक और धार्मिक कर्तव्य

श्रीकृष्ण अर्जुन को केवल युद्ध में भाग लेने के लिए प्रेरित नहीं कर रहे थे, बल्कि उसे उसके नैतिक और धार्मिक कर्तव्य का स्मरण करा रहे थे। वे चाहते थे कि अर्जुन समझे कि उसका कर्तव्य केवल व्यक्तिगत प्रतिष्ठा से परे है।

दीर्घकालिक परिणामों का महत्व

श्रीकृष्ण अर्जुन को यह भी समझा रहे थे कि उसके निर्णय के दीर्घकालिक परिणाम होंगे। युद्ध से पलायन न केवल वर्तमान परिस्थितियों को प्रभावित करेगा, बल्कि भविष्य में भी उसके और उसके वंशजों के जीवन पर प्रभाव डालेगा।

समाज में प्रतिष्ठा का महत्व

व्यक्तिगत और सामूहिक प्रतिष्ठा

प्राचीन भारतीय समाज में, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा केवल एक व्यक्ति तक सीमित नहीं थी। यह पूरे परिवार, वंश और यहां तक कि समुदाय की प्रतिष्ठा से जुड़ी हुई थी। अर्जुन का निर्णय न केवल उसे, बल्कि पूरे पांडव वंश को प्रभावित कर सकता था।

प्रतिष्ठा का सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव

प्रतिष्ठा का नुकसान केवल सामाजिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि राजनीतिक स्तर पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता था। यह मित्रों और सहयोगियों के समर्थन को कमजोर कर सकता था और शत्रुओं को मनोबल बढ़ाने का अवसर दे सकता था।

निष्कर्ष: कर्तव्य और प्रतिष्ठा का संतुलन

अंत में, अर्जुन के सामने एक जटिल नैतिक द्विविधा थी। उसे अपने व्यक्तिगत नैतिक संकोच और समाज की अपेक्षाओं के बीच संतुलन बनाना था। श्रीकृष्ण का उद्देश्य उसे इस बात का एहसास कराना था कि कर्तव्य का पालन न केवल व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के लिए, बल्कि एक बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।

यह प्रसंग हमें आज भी प्रासंगिक सबक देता है। यह हमें याद दिलाता है कि हमारे निर्णय केवल हमें ही नहीं, बल्कि हमारे आस-पास के लोगों और समाज को भी प्रभावित करते हैं। यह हमें अपने कर्तव्यों के महत्व और उनके पालन के दीर्घकालिक प्रभावों पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है।

परिशिष्ट: युद्ध और नैतिकता – एक तुलनात्मक अध्ययन

पहलूअर्जुन का दृष्टिकोणश्रीकृष्ण का दृष्टिकोण
युद्ध का औचित्यसंदेह और नैतिक संकटकर्तव्य और धर्म का पालन
परिणामों का आकलनव्यक्तिगत और तात्कालिकसामाजिक और दीर्घकालिक
प्रतिष्ठा का महत्वगौण चिंतामहत्वपूर्ण कारक
कर्तव्य की परिभाषापरिवार के प्रतिसमाज और धर्म के प्रति
नैतिक दुविधाहिंसा से बचनान्याय स्थापित करना

इस तालिका से स्पष्ट होता है कि अर्जुन और श्रीकृष्ण के दृष्टिकोण में मौलिक अंतर था। जहाँ अर्जुन व्यक्तिगत नैतिकता और तात्कालिक परिणामों पर ध्यान दे रहा था, वहीं श्रीकृष्ण का दृष्टिकोण अधिक व्यापक और दूरगामी था। यह अंतर न केवल उनके व्यक्तिगत विचारों को, बल्कि उस समय के समाज में विभिन्न मूल्यों और दायित्वों के बीच के तनाव को भी प्रतिबिंबित करता है।

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