भगवद गीता: अध्याय 2, श्लोक 4
अर्जुन उवाच।
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजाह्नवरिसूदन ॥4॥
अर्जुन उवाच-अर्जुन ने कहा; कथम् कैसे; भीष्मम्-भीष्म को; अहम् मे; संख्ये-युद्ध मे; द्रोणम्-द्रोणाचार्य को; च-और; मधुसूदन-मधु राक्षस के दमनकर्ता, श्रीकृष्ण; इषुभिः-वाणों से; प्रतियोत्स्यामि प्रहार करूँगा; पूजा-अहौ-पूजनीय; अरि-सूदन-शत्रुओं के दमनकर्ता! ।
Hindi translation : अर्जुन ने कहा-हे मधुसूदन! हे शत्रुओं के दमनकर्ता! मैं युद्धभूमि में कैसे भीष्म और द्रोणाचार्य जैसे महापुरुषों पर बाण चला सकता हूँ जो मेरे लिए परम पूजनीय है।
श्रीकृष्ण और अर्जुन: धर्मयुद्ध का द्वंद्व
महाभारत के महायुद्ध के मैदान में, जहाँ दो महान सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं, एक ऐसा संवाद हुआ जो इतिहास में अमर हो गया। यह संवाद श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुआ, जिसने न केवल युद्ध की दिशा बदली, बल्कि मानवता को जीवन के गहन सत्यों से परिचित कराया। आइए इस संवाद के महत्वपूर्ण पहलुओं पर एक नज़र डालें।
अर्जुन का द्वंद्व: कर्तव्य बनाम भावना
गुरुजनों के प्रति श्रद्धा
अर्जुन, जो कि महान योद्धा था, अचानक युद्ध के मैदान में संशय से भर गया। उसके सामने एक बड़ी चुनौती थी – अपने ही गुरुजनों और रिश्तेदारों के खिलाफ लड़ना। उसने श्रीकृष्ण से कहा:
“हे कृष्ण! मैं कैसे अपने गुरु भीष्म और द्रोणाचार्य पर बाण चला सकता हूँ? वे मेरे लिए पूजनीय हैं।”
भीष्म की महानता
अर्जुन ने भीष्म पितामह की महानता का वर्णन करते हुए कहा:
“भीष्म पितामह ब्रह्मचर्य के प्रतीक हैं। उन्होंने अपने पिता के वचन की रक्षा के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया। ऐसे महान व्यक्ति पर मैं कैसे प्रहार कर सकता हूँ?”
द्रोणाचार्य का ऋण
अर्जुन ने अपने गुरु द्रोणाचार्य के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा:
“द्रोणाचार्य ने मुझे धनुर्विद्या सिखाई। उनकी कृपा से ही मैं आज श्रेष्ठ धनुर्धर हूँ। क्या मैं अपने ही गुरु पर बाण चलाऊँ?”
नैतिक संकट: धर्म और कर्तव्य का टकराव
कर्तव्य का बोझ
अर्जुन अपने कर्तव्य और भावनाओं के बीच फँस गया था। उसने श्रीकृष्ण से कहा:
“हे कृष्ण! मेरा कर्तव्य है कि मैं अपने गुरुजनों का सम्मान करूँ और अपने रिश्तेदारों पर दया दिखाऊँ। लेकिन यह युद्ध मुझसे ठीक इसके विपरीत माँग कर रहा है।”
आत्मग्लानि का भाव
अर्जुन की आँखों में आँसू थे जब उसने कहा:
“मुझे लगता है कि इन महान लोगों के विरुद्ध हथियार उठाना घृणित कार्य होगा। मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ?”
श्रीकृष्ण का दृष्टिकोण: कर्म की महत्ता
कर्तव्य पालन का महत्व
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया:
“अर्जुन, तुम्हारी भावनाएँ स्वाभाविक हैं, लेकिन एक क्षत्रिय के रूप में तुम्हारा कर्तव्य अधर्म के विरुद्ध लड़ना है।”
धर्मयुद्ध की अवधारणा
कृष्ण ने धर्मयुद्ध की व्याख्या करते हुए कहा:
“यह युद्ध धर्म की स्थापना के लिए है। तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम इसमें भाग लो, चाहे सामने कोई भी हो।”
निष्कर्ष: कर्म की श्रेष्ठता
अंत में, श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि कर्तव्य पालन ही सबसे बड़ा धर्म है। उन्होंने कहा:
“अर्जुन, तुम्हारा कर्तव्य तुम्हारे व्यक्तिगत संबंधों से ऊपर है। धर्म की रक्षा के लिए तुम्हें युद्ध करना होगा।”
इस प्रकार, महाभारत का यह प्रसंग हमें सिखाता है कि जीवन में कभी-कभी हमें कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं, जहाँ हमारी भावनाएँ और कर्तव्य आमने-सामने होते हैं। ऐसे में, हमें अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करना चाहिए, भले ही वह कितना ही कठिन क्यों न हो।
महाभारत के प्रमुख पात्रों का तुलनात्मक विश्लेषण
पात्र | भूमिका | विशेषता | अर्जुन के प्रति संबंध |
---|---|---|---|
भीष्म | पितामह | ब्रह्मचर्य की प्रतिमूर्ति | आदरणीय गुरु |
द्रोणाचार्य | गुरु | धनुर्विद्या के महान ज्ञाता | शिक्षक और मार्गदर्शक |
कृपाचार्य | आचार्य | महान योद्धा और विद्वान | श्रद्धेय व्यक्ति |
श्रीकृष्ण | मित्र और मार्गदर्शक | योगेश्वर, रणनीतिकार | सारथी और परम मित्र |
अर्जुन | पांडव योद्धा | श्रेष्ठ धनुर्धर, संवेदनशील | स्वयं |
अर्जुन का आंतरिक संघर्ष: एक गहन विश्लेषण
भावनात्मक द्वंद्व
अर्जुन का मन विचलित था। एक ओर उसका क्षत्रिय धर्म उसे युद्ध के लिए प्रेरित कर रहा था, तो दूसरी ओर उसकी मानवीय संवेदनाएँ उसे रोक रही थीं। उसने श्रीकृष्ण से कहा:
“हे कृष्ण! मेरा मन द्वंद्व में है। मैं जानता हूँ कि मुझे लड़ना चाहिए, लेकिन मेरा हृदय इसकी अनुमति नहीं देता।”
नैतिक दुविधा
अर्जुन के सामने एक बड़ी नैतिक दुविधा थी। उसने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा:
“क्या धर्म की रक्षा के नाम पर अपने ही परिवार का संहार उचित है? क्या इससे हमारा कुल नष्ट नहीं हो जाएगा?”
श्रीकृष्ण का उपदेश: गीता का सार
कर्म योग का सिद्धांत
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म योग का महत्व समझाते हुए कहा:
“अर्जुन, कर्म ही जीवन का सार है। तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम निष्काम भाव से अपने कर्म करो, फल की चिंता किए बिना।”
आत्मज्ञान की महत्ता
कृष्ण ने आत्मज्ञान पर बल देते हुए कहा:
“तुम यह समझो कि आत्मा अमर है। शरीर नश्वर है, लेकिन आत्मा का न जन्म होता है, न मृत्यु। इसलिए, अपने कर्तव्य से विचलित मत हो।”
युद्ध की अनिवार्यता: एक व्यापक दृष्टिकोण
अधर्म का विनाश
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि यह युद्ध अधर्म के विनाश के लिए आवश्यक है। उन्होंने कहा:
“यह युद्ध केवल राज्य के लिए नहीं, बल्कि धर्म की स्थापना के लिए है। तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम इसमें भाग लो।”
विश्व व्यवस्था का संतुलन
कृष्ण ने विश्व व्यवस्था के संतुलन की बात करते हुए कहा:
“कभी-कभी विनाश भी आवश्यक होता है, ताकि नए युग का सूत्रपात हो सके। यह युद्ध एक नए युग की शुरुआत है।”
निष्कर्ष: धर्म और कर्तव्य का समन्वय
अंत में, श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि धर्म और कर्तव्य का समन्वय ही जीवन का सार है। उन्होंने कहा:
“अर्जुन, तुम्हारा धर्म और कर्तव्य एक ही है – अधर्म के विरुद्ध संघर्ष करना। इसलिए, अपने मन को स्थिर करो और युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।”
इस प्रकार, महाभारत का यह प्रसंग हमें जीवन के गहन सत्यों से परिचित कराता है। यह हमें सिखाता है कि कभी-कभी हमें अपनी भावनाओं से ऊपर उठकर अपने कर्तव्य का पालन करना होता है, भले ही वह कितना ही कठिन क्यों न हो। यह हमें यह भी समझाता है कि धर्म और कर्तव्य का मार्ग कभी-कभी कष्टदायक हो सकता है, लेकिन वही मार्ग हमें सच्चे अर्थों में महान बनाता है।
2 Comments