Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 3, श्लोक 35

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥35॥

श्रेयान्-अति श्रेष्ठ स्वधर्म:-अपने निजी कर्त्तव्य; विगुणः-दोषयुक्त; पर-धर्मात्-अन्यों के नियत कार्यों की अपेक्षा; स्व-अनुण्ठितात्–निपुणता के साथ; स्वधर्मे-अपने निश्चित कर्त्तव्यों से; निधनम्-मृत्युः श्रेयः-उत्तम; परधर्म:-अन्यों के लिए नियत कर्त्तव्य; भयआवहः-भयावह।

Hindi translation: अपने नियत कार्यों को दोष युक्त सम्पन्न करना अन्य के निश्चित कार्यों को समुचित ढंग से करने से कहीं अधिक श्रेष्ठ होता है। वास्तव में अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना दूसरों के जोखिम से युक्त भयावह मार्ग का अनुसरण करने से श्रेयस्कर होता है।

धर्म: हमारे अस्तित्व का मूल सिद्धांत

धर्म का अर्थ और महत्व

धर्म शब्द की उत्पत्ति ‘धृ’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है ‘धारण करने योग्य या हमारे लिए उपयुक्त उत्तरदायित्व, कर्तव्य, विचार और कर्म’। धर्म का प्रयोग प्रायः हिन्दुत्व और बौद्धत्व के लिए किया जाता है, लेकिन अंग्रेजी भाषा में इस शब्द का अनुवाद ‘रेलीजन’ (religion) करना अत्यंत दुराग्रह है। धर्म परायणता, सदाचरण, कर्तव्य, उदात्त गुण इत्यादि जैसे शब्द केवल इसके अर्थ के दृष्टिकोण का वर्णन करते हैं।

धर्म के प्रकार और उनका महत्व

स्वधर्म

स्व उपसर्ग का अर्थ ‘स्वयं’ है। इस प्रकार स्वधर्म हमारा निजी धर्म है। जो धर्म हमारे जीवन के संदर्भ, स्थिति, परिपक्वता और व्यवसाय पर लागू होता है और जैसे-जैसे हम आध्यात्मिक रूप से उन्नत होते हैं तब हमारे जीवन के संदर्भो में परिवर्तन आने पर हमारा स्वधर्म भी परिवर्तित हो सकता है।

कुलधर्म

श्रीकृष्ण अर्जुन को उसके स्वधर्म का पालन करने के लिए कहते हुए उसे समझा रहे हैं कि वह अपने क्षत्रिय कुल के धर्म का पालन करे और इसमें कोई शिथिलता प्रदर्शित न करे ताकि कोई दूसरा इसका अनुचित लाभ न उठा सके।

धर्म के प्रकारविवरण
स्वधर्महमारा निजी धर्म, जो हमारे जीवन के संदर्भ, स्थिति, परिपक्वता और व्यवसाय पर लागू होता है
कुलधर्महमारे कुल या जाति से संबंधित धर्म, जिसका हमें पालन करना चाहिए
सार्वभौमिक धर्मसभी मानव जाति के लिए समान रूप से लागू होने वाला धर्म, जैसे मानवीय मूल्य और सदाचरण

धर्म का व्यावहारिक महत्व

किसी अन्य का अभिनय करने की अपेक्षा अपनी वास्तविकता में आनन्दित होना अत्यंत श्रेयस्कर होता है। प्रकृति द्वारा निश्चित अपने कर्तव्यों का निर्वाहन हम मन की स्थिरता के साथ सरलता से कर सकते हैं। दूसरों के कार्य हमें दूर से आकर्षित कर सकते हैं और यदि हम तदानुसार अपने कार्यों को परिवर्तित करने का विचार करते हैं तब ऐसा करना जोखिम भरा होगा। यदि ये हमारी प्रकृति के प्रतिकूल हैं तब ये हमारी इन्द्रियों, मन और बुद्धि में असामंजस्य उत्पन्न करेंगे। यह हमारी चेतना के लिए हानिकारक और आध्यात्मिक पथ पर हमारी उन्नति के मार्ग में बाधक होगा।

इस प्रकार, धर्म का पालन करना हमारे जीवन में शांति, संतुलन और प्रगति लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

ठीक है, आइये अगले भाग पर विचार करते हैं:

धर्म का आध्यात्मिक महत्व

धर्म हमारे अस्तित्व का मूल सिद्धांत है। आत्मा का धर्म भगवान से प्रेम करना है। यह हमारे अस्तित्व का मुख्य सिद्धान्त है। भगवान श्रीकृष्ण इस बिन्दु पर बल देते हुए नाटकीय ढंग से यह कहते हैं कि अपने धर्म का निष्ठापूर्वक पालन करते हुए अपने प्राणों का बलिदान देना अपेक्षाकृत दूसरों के कार्यों में प्रवृत्त होकर अप्रिय स्थिति में फंसने से श्रेष्ठ है।

धर्म हमारे आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। जैसे-जैसे हम धर्म में दृढ़ होते जाते हैं, हमारी चेतना भी पवित्र और उन्नत होती जाती है। धर्म हमें अपने मूल स्वरूप की ओर ले जाता है और हमारी आत्मा को भगवान से जोड़ता है।

धर्म के कुछ आध्यात्मिक पहलू:

  • भक्ति और प्रेम
  • तपस्या और साधना
  • ज्ञान और विवेक
  • सत्य और अहिंसा
  • संयम और शांति

इन सभी पहलुओं का अनुशीलन करके हम अपने अंतर्मन को शुद्ध और प्रकाशित कर सकते हैं और अपने आत्मीय उद्गम से जुड़ सकते हैं।

निष्कर्ष

संक्षेप में, धर्म हमारे जीवन का मूल आधार है। यह हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। धर्म के विभिन्न पहलुओं का अनुशीलन करके हम अपने जीवन को संतुलित, शांतिपूर्ण और उन्नत बना सकते हैं।

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