Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 1, श्लोक 34-35

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥34।
एतान्न हन्तुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥35॥


आचार्याः-शिक्षक; पितरः-पितृगणः पुत्रा-पुत्र; तथा उसी प्रकार; एव-वास्तव में; च-भी; पितामहाः-पितामह; मातुला:-मामा; श्वशुरा:-श्वसुर; पौत्रा:-पौत्र; श्याला:-साले; सम्बन्धिनः-वंशजी; तथा उसी प्रकार से तथा; एतान्–ये सब; न-नहीं; हन्तुम् वध करना; इच्छामि मैं चाहता हूँ; घ्रतः-वध करने पर; अपि-भी; मधुसूदन– मधु नामक असुर का वध करने वाले, श्रीकृष्ण; अपि-तो भी; त्रै-लोक्य- राज्यस्य–तीनों लोकों का राज्य; हेतो:-के लिए; किम नु-क्या कहा जाए; मही-कृते-पृथ्वी के लिए;


Hindi translation : हे मधुसूदन! जब आचार्यगण, पितृगण, पुत्र, पितामह, मामा, पौत्र, ससुर, भांजे, साले और अन्य संबंधी अपने प्राण और धन का दाव लगाकर यहाँ उपस्थित हुए हैं। यद्यपि वे मुझपर आक्रमण भी करते हैं तथापि मैं इनका वध क्यों करूं? यदि फिर भी हम धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करते हैं तब भले ही इससे हमें पृथ्वी के अलावा तीनों लोक भी प्राप्त क्यों न होते हों तब भी उन्हें मारने से हमें सुख कैसे प्राप्त होगा?

महाभारत का युद्ध: अर्जुन का द्वंद्व और नैतिक संकट

महाभारत का महायुद्ध शुरू होने से पहले, अर्जुन एक गहन नैतिक संकट से गुजरते हैं। वे अपने परिवार, गुरुजनों और मित्रों के खिलाफ लड़ने की कल्पना से विचलित हो जाते हैं। इस ब्लॉग में हम अर्जुन के इस मानसिक द्वंद्व को समझने का प्रयास करेंगे।

अर्जुन का परिवार और गुरुजन

गुरु और पितृतुल्य व्यक्ति

अर्जुन के जीवन में कई ऐसे लोग थे जिन्होंने उन्हें सिखाया और मार्गदर्शन दिया। इनमें शामिल थे:

  • द्रोणाचार्य: धनुर्विद्या के महान गुरु
  • कृपाचार्य: एक और प्रसिद्ध शिक्षक
  • भीष्म पितामह: कुरु वंश के वरिष्ठ सदस्य
  • सोमदत्त: एक अन्य वरिष्ठ योद्धा
  • भूरिश्रवा: सोमदत्त का पुत्र

इन सभी व्यक्तियों ने अर्जुन के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वे न केवल उनके शिक्षक थे, बल्कि पिता के समान सम्मान के पात्र थे।

भाई और रिश्तेदार

अर्जुन के कई चचेरे भाई और रिश्तेदार भी युद्धभूमि में मौजूद थे:

  1. पुरुजित
  2. कुंतिभोज
  3. शल्य
  4. शकुनि (मामा)
  5. धृतराष्ट्र के सौ पुत्र (दुर्योधन सहित)

इसके अलावा, दुर्योधन का पुत्र लक्ष्मण भी वहाँ था, जो अर्जुन के लिए अपने पुत्र के समान था।

अर्जुन का द्विविधा

अर्जुन अपने इन सभी रिश्तों को देखकर गहरी द्विविधा में पड़ जाते हैं। उनके मन में दो प्रमुख विचार उठते हैं:

  1. पहला विचार: यदि ये लोग मुझ पर आक्रमण करें, तब भी मैं इनका वध नहीं करना चाहूँगा।
  2. दूसरा विचार: यदि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध कर दें, तो भले ही हमें इससे तीनों लोक मिल जाएँ, फिर भी हमें इससे सुख और शांति कैसे मिलेगी?

अर्जुन के संदेह का विश्लेषण

अर्जुन के इस द्वंद्व को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है:

  1. पारिवारिक बंधन: अर्जुन अपने परिवार और गुरुजनों से गहरा जुड़ाव महसूस करते हैं।
  2. कर्तव्य बनाम मोह: वे अपने क्षत्रिय कर्तव्य और पारिवारिक मोह के बीच फंसे हुए हैं।
  3. नैतिक दुविधा: युद्ध में जीत हासिल करने के लिए अपनों का वध करना कितना उचित है?
  4. भविष्य की चिंता: क्या इस तरह की जीत के बाद वे शांति से जी पाएंगे?

युद्ध के परिणाम: एक तुलनात्मक दृष्टिकोण

अर्जुन के विचारों को समझने के लिए, आइए युद्ध लड़ने और न लड़ने के संभावित परिणामों की तुलना करें:

युद्ध लड़ने के परिणामयुद्ध न लड़ने के परिणाम
राज्य की प्राप्तिअपने कर्तव्य से विमुख होना
परिवार का विनाशअपमान और तिरस्कार
अपराध बोधशांति की संभावना
शक्ति और प्रभुत्वआत्मसम्मान की हानि
भौतिक समृद्धिआध्यात्मिक संतोष

अर्जुन की मनोदशा का गहन विश्लेषण

भावनात्मक पहलू

अर्जुन की मनोदशा को समझने के लिए उनकी भावनाओं का विश्लेषण करना महत्वपूर्ण है:

  1. भय: अपनों के खून से हाथ रंगने का डर
  2. प्रेम: परिवार और गुरुजनों के प्रति गहरा लगाव
  3. संदेह: अपने कर्तव्य के बारे में अनिश्चितता
  4. दुःख: आने वाले विनाश की पूर्व कल्पना
  5. द्वंद्व: कर्तव्य और मोह के बीच फंसे होने की पीड़ा

नैतिक दुविधा

अर्जुन की नैतिक दुविधा कई स्तरों पर है:

  1. व्यक्तिगत नैतिकता बनाम सामाजिक कर्तव्य: क्या व्यक्तिगत नैतिक मूल्य समाज के प्रति कर्तव्य से ऊपर हैं?
  2. धर्म का अर्थ: क्या धर्म का पालन करने का अर्थ युद्ध में भाग लेना है या अहिंसा का पालन करना?
  3. परिणामों की चिंता: क्या भविष्य में मिलने वाला सुख वर्तमान के नुकसान की भरपाई कर सकता है?
  4. कुल परंपरा का संरक्षण: युद्ध से कुल का विनाश होगा, लेकिन युद्ध न करने से कुल की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचेगा।

निष्कर्ष: अर्जुन का आंतरिक संघर्ष

अर्जुन का यह आंतरिक संघर्ष महाभारत के केंद्रीय विषयों में से एक है। यह हमें निम्नलिखित प्रश्नों पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है:

  1. क्या कर्तव्य का पालन करना हमेशा सही होता है, भले ही उसके परिणाम विनाशकारी हों?
  2. क्या पारिवारिक बंधन और प्रेम को कर्तव्य से ऊपर रखा जाना चाहिए?
  3. क्या युद्ध कभी भी न्यायोचित हो सकता है?
  4. सुख और शांति की वास्तविक प्रकृति क्या है?

अर्जुन का यह द्वंद्व न केवल एक व्यक्ति की मनोदशा को दर्शाता है, बल्कि यह मानव जीवन के मूलभूत प्रश्नों को भी उठाता है। यह हमें अपने जीवन में आने वाले नैतिक फैसलों पर गहराई से सोचने के लिए प्रेरित करता है।

इस प्रकार, महाभारत का यह प्रसंग केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं है, बल्कि यह मानव मन की जटिलताओं और नैतिक चुनौतियों का एक गहन चित्रण है, जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना हजारों साल पहले था।

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