सञ्जय उवाच।
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥24॥
Hindi translation : संजय ने कहा-हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! निद्रा पर विजय पाने वाले अर्जुन द्वारा इस प्रकार के वचन बोले जाने पर तब भगवान श्रीकृष्ण ने उस भव्य रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जाकर खड़ा कर दिया।
युद्ध के मैदान में अर्जुन का संशय और श्रीकृष्ण का मार्गदर्शन
महाभारत के महान युद्ध की पूर्व संध्या पर, कुरुक्षेत्र के मैदान में एक ऐसा क्षण आया जो भारतीय दर्शन और आध्यात्मिकता के इतिहास में अमर हो गया। यह क्षण था जब अर्जुन, पांडवों के महान योद्धा, अपने सारथि और मित्र श्रीकृष्ण से अपने मन के संशय और द्वंद्व को व्यक्त करते हैं। इस संवाद से जन्म लेता है गीता का अमूल्य ज्ञान, जो आज भी करोड़ों लोगों के जीवन का मार्गदर्शन करता है।
कुरुक्षेत्र: युद्ध का मैदान और ज्ञान का मंच
कुरुक्षेत्र केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं, बल्कि एक प्रतीक है। यह वह स्थान है जहाँ न केवल दो सेनाओं का टकराव होता है, बल्कि मानवीय मूल्यों, कर्तव्यों और नैतिकता का भी संघर्ष होता है।
दो सेनाओं का आमना-सामना
कौरवों और पांडवों की विशाल सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हैं। एक ओर अधर्म का प्रतीक दुर्योधन और उसके साथी, दूसरी ओर धर्म के रक्षक पांडव। दोनों पक्षों में वीर योद्धा, महारथी और महान योद्धा तैयार खड़े हैं।
अर्जुन का रथ: दो सेनाओं के मध्य
संजय, जो धृतराष्ट्र को युद्ध का वर्णन कर रहे हैं, बताते हैं कि कैसे श्रीकृष्ण ने अर्जुन के रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कर दिया। यह स्थान महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह अर्जुन को दोनों पक्षों का स्पष्ट दृश्य प्रदान करता है।
अर्जुन का संशय: एक योद्धा का मानवीय पक्ष
जैसे ही अर्जुन दोनों सेनाओं को देखता है, उसके मन में एक तूफान उठता है। वह अपने परिवार, गुरुजनों और मित्रों को विपक्षी सेना में खड़े देखता है।
परिवार और कर्तव्य का द्वंद्व
अर्जुन के सामने एक गंभीर नैतिक दुविधा है। एक ओर उसका क्षत्रिय धर्म है जो उसे युद्ध करने के लिए प्रेरित करता है, दूसरी ओर उसका परिवार और प्रियजन हैं जिनके खिलाफ उसे लड़ना है।
मोह और विषाद का आवरण
अर्जुन के मन में उठने वाले विचार:
- क्या यह युद्ध उचित है?
- क्या अपने ही परिवार के विरुद्ध लड़ना धर्म है?
- इस युद्ध के परिणामस्वरूप होने वाले विनाश का क्या औचित्य है?
इन प्रश्नों से घिरा अर्जुन विषाद में डूब जाता है। वह अपने धनुष गांडीव को नीचे रख देता है और कहता है कि वह युद्ध नहीं करेगा।
श्रीकृष्ण का हस्तक्षेप
इस क्षण पर श्रीकृष्ण, जो अब तक केवल अर्जुन के सारथि की भूमिका में थे, एक गुरु के रूप में सामने आते हैं। वे अर्जुन के संशय को समझते हैं और उसे ज्ञान देने के लिए तैयार होते हैं।
गीता का ज्ञान: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वय
श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता का ज्ञान देते हैं, जो जीवन के मूलभूत प्रश्नों का उत्तर देता है।
कर्मयोग: निष्काम कर्म का मार्ग
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि मनुष्य का कर्तव्य कर्म करना है, परंतु फल की चिंता किए बिना। वे कहते हैं:
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थात्: तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में कभी नहीं। इसलिए कर्म के फल के लिए कारण मत बनो, और न ही कर्म न करने में तुम्हारी आसक्ति हो।