Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 2, श्लोक 19

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥19॥

यः-वह जो; एनम् इसे; वेत्ति–जानता है; हन्तारम्-मारने वाला; यः-जो; च-और; एनम्-इसे; मन्यते-सोचता है; हतम्-मरा हुआ; उभौ-दोनों; तौ-वे; न न तो; विजानीतः-जानते हैं; न-न ही; अयम्-यह; हन्ति-मारता है; न-नहीं; हन्यते–मारा जाता है।

Hindi translation : वह जो यह सोचता है कि आत्मा को मारा जा सकता है या आत्मा मर सकती है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं। वास्तव में आत्मा न तो मरती है और न ही उसे मारा जा सकता है।

मृत्यु का भ्रम: एक आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य

प्रस्तावना

मृत्यु एक ऐसा विषय है जो मानव जाति को सदियों से परेशान करता रहा है। यह जीवन का एक अनिवार्य सत्य है, फिर भी इसके बारे में हमारी समझ अक्सर भ्रम से ग्रस्त रहती है। हमारे भारतीय दर्शन में मृत्यु को एक अलग दृष्टिकोण से देखा जाता है। आइए इस विषय पर गहराई से विचार करें।

मृत्यु का भय: कारण और निवारण

शरीर और आत्मा का भ्रम

हमारे अधिकांश भय और चिंताएं इस भ्रम से उत्पन्न होती हैं कि हम अपने शरीर को ही अपना संपूर्ण अस्तित्व मान लेते हैं। यह भ्रम हमें मृत्यु से डरने के लिए मजबूर करता है।

रामचरितमानस का दृष्टांत

इस संदर्भ में रामचरितमानस का एक प्रसिद्ध दोहा है:

जौं सपनें सिर काटै कोई।
बिनु जागें न दूरि दुख होई।।

यह दोहा हमें बताता है कि जब तक हम अज्ञान की नींद में सोए रहते हैं, तब तक हमें मृत्यु का भय सताता रहता है। जैसे एक स्वप्न में देखा गया दुःख जागने पर समाप्त हो जाता है, वैसे ही आत्मज्ञान प्राप्त करने पर मृत्यु का भय दूर हो जाता है।

आत्मज्ञान का महत्व

आत्मज्ञान प्राप्त करना मृत्यु के भय से मुक्ति पाने का सबसे प्रभावी उपाय है। जब हम यह समझ लेते हैं कि हमारा वास्तविक स्वरूप शरीर नहीं, बल्कि अमर आत्मा है, तो मृत्यु का भय स्वतः ही समाप्त हो जाता है।

हिंसा और अहिंसा का द्वंद्व

वेदों का दृष्टिकोण

वेदों में स्पष्ट रूप से कहा गया है: ‘मा हिंस्यात्सर्वभूतानि’ अर्थात ‘किसी प्राणी पर हिंसा मत करो।’ यह एक सार्वभौमिक सिद्धांत है जो सभी जीवों के प्रति करुणा और सम्मान की शिक्षा देता है।

परिस्थितिजन्य नैतिकता

हालांकि, जीवन में ऐसी परिस्थितियां भी आ सकती हैं जहां हिंसा अनिवार्य हो जाती है। उदाहरण के लिए:

  1. आत्मरक्षा के लिए
  2. दूसरों की रक्षा के लिए
  3. न्याय और धर्म की स्थापना के लिए

इन परिस्थितियों में हिंसा को अधर्म नहीं माना जाता।

अर्जुन का द्वंद्व

भगवद्गीता में अर्जुन इसी द्वंद्व से जूझते हुए दिखाई देते हैं। वे युद्ध में अपने रिश्तेदारों और गुरुजनों के विरुद्ध लड़ने के विचार से व्याकुल हो उठते हैं।

श्रीकृष्ण का उपदेश

कर्म का सिद्धांत

श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, चाहे वह कितना भी कठिन क्यों न हो। वे कहते हैं:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

अर्थात्, “तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में कभी नहीं। इसलिए कर्मफल के हेतु मत बनो, और न ही कर्म न करने में तुम्हारी आसक्ति हो।”

आत्मा की अमरता

श्रीकृष्ण आत्मा की अमरता पर भी प्रकाश डालते हैं:

न जायते म्रियते वा कदाचिन्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥

अर्थात्, “आत्मा न तो कभी जन्म लेती है और न मरती है। वह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होती।”

आधुनिक संदर्भ में मृत्यु का भ्रम

मनोवैज्ञानिक पहलू

आधुनिक मनोविज्ञान भी मृत्यु के भय को एक मनोवैज्ञानिक समस्या के रूप में देखता है। यह भय अक्सर जीवन की अनिश्चितता और अज्ञात से डर के कारण उत्पन्न होता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण

विज्ञान हमें बताता है कि मृत्यु एक जैविक प्रक्रिया है। ऊर्जा के संरक्षण के नियम के अनुसार, ऊर्जा न तो उत्पन्न की जा सकती है और न ही नष्ट की जा सकती है। इस प्रकार, हमारे अस्तित्व की ऊर्जा किसी न किसी रूप में हमेशा बनी रहती है।

मृत्यु के भय से मुक्ति: व्यावहारिक सुझाव

  1. आत्मचिंतन और ध्यान
  2. जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करना
  3. वर्तमान क्षण में जीना सीखना
  4. सेवा और परोपकार में लीन होना
  5. आध्यात्मिक ज्ञान का अध्ययन

तालिका: मृत्यु के भय से मुक्ति के चरण

चरणक्रियालाभ
1आत्मचिंतनआत्मबोध में वृद्धि
2ध्यानमानसिक शांति
3सेवाजीवन के उद्देश्य का बोध
4अध्ययनज्ञान में वृद्धि
5सकारात्मक दृष्टिकोणजीवन की गुणवत्ता में सुधार

निष्कर्ष

मृत्यु का भय वास्तव में अज्ञान का परिणाम है। जब हम अपने वास्तविक स्वरूप को समझ लेते हैं, तो यह भय स्वतः ही दूर हो जाता है। भारतीय दर्शन हमें सिखाता है कि मृत्यु जीवन का अंत नहीं, बल्कि एक नई यात्रा की शुरुआत है।

हमें याद रखना चाहिए कि जीवन अनमोल है और इसका हर क्षण मूल्यवान है। मृत्यु के भय में जीने के बजाय, हमें अपने जीवन को सार्थक बनाने पर ध्यान देना चाहिए। जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था, “ऐसे जियो जैसे कल मरना है, ऐसे सीखो जैसे हमेशा जीना है।”

अंत में, यह समझना महत्वपूर्ण है कि मृत्यु का भय एक सार्वभौमिक अनुभव है। इससे पूरी तरह से मुक्त होना शायद संभव न हो, लेकिन इस भय को समझना और इससे सामना करना हमें एक बेहतर और अधिक साર्थक जीवन जीने में मदद कर सकता है। आत्मज्ञान, करुणा और सेवा के मार्ग पर चलकर हम न केवल अपने जीवन को समृद्ध बना सकते हैं, बल्कि मृत्यु के भय से भी मुक्त हो सकते हैं।

इस प्रकार, मृत्यु का भ्रम वास्तव में जीवन के सत्य को समझने का एक अवसर बन जाता है। यह हमें याद दिलाता है कि हम अपने शरीर से कहीं अधिक हैं – हम एक अमर आत्मा हैं जो इस भौतिक जगत से परे है। इस ज्ञान के साथ, हम अपने जीवन को अधिक साहस, प्रेम और करुणा के साथ जी सकते हैं, जानते हुए कि मृत्यु केवल एक परिवर्तन है, एक अंत नहीं।

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