Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 2, श्लोक 72

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥72॥


एषा-ऐसे; ब्राह्मी-स्थितिः-भगवदप्राप्ति की अवस्थाः पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; न कभी नहीं; एनाम्-इसको;प्राप्य-प्राप्त करके; विमुह्यति-मोहित होता है; स्थित्वा-स्थित होकर; अस्याम्-इसमें; अन्तकाले-मृत्यु के समय; अपि-भी; ब्रह्म-निवाणम्-माया से मुक्ति; ऋच्छति-प्राप्त करता है।

Hindi translation: हे पार्थ! ऐसी अवस्था में रहने वाली प्रबुद्ध आत्मा जब ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेती है, वह फिर कभी भ्रमित नहीं होती तब मृत्यु के समय भी इस दिव्य चेतना में स्थित सिद्ध पुरुष जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है और भगवान के परम धाम में प्रवेश करता है।

ब्रह्म की खोज: आत्मा का परम लक्ष्य

भारतीय दर्शन में ब्रह्म की अवधारणा सदियों से रही है। यह वह परम सत्य है जिसकी खोज में मनुष्य अनादि काल से लगा हुआ है। आज हम इस गहन विषय पर एक यात्रा करेंगे, जहां हम समझेंगे कि ब्रह्म क्या है, उसकी प्राप्ति कैसे होती है, और यह हमारे जीवन को कैसे बदल सकती है।

ब्रह्म का अर्थ: परम सत्य की परिभाषा

ब्रह्म शब्द की व्याख्या करना जितना सरल लगता है, उतना ही जटिल भी है। आइए इसे समझने का प्रयास करें:

ब्रह्म: शब्दों से परे सत्य

ब्रह्म वह है जो सभी वस्तुओं का मूल है, जो सर्वव्यापी है, और जिसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। फिर भी, हमारे ऋषि-मुनियों ने इसे समझाने का प्रयास किया है:

  1. अद्वैत वेदांत के अनुसार: ब्रह्म एकमात्र सत्य है, जगत मिथ्या है।
  2. विशिष्टाद्वैत के अनुसार: ब्रह्म सगुण है और जीवात्मा उसका अंश है।
  3. द्वैत मत के अनुसार: ब्रह्म और जीवात्मा दो अलग सत्ताएं हैं।

बहुत अच्छा, अब हम ब्रह्म प्राप्ति की प्रक्रिया पर चर्चा करेंगे।

ब्रह्म प्राप्ति: आत्मा का परम लक्ष्य

ब्रह्म प्राप्ति वह अवस्था है जब आत्मा परम सत्य से एकाकार हो जाती है। यह एक जटिल और गहन प्रक्रिया है जिसमें कई चरण शामिल हैं:

1. अंतःकरण की शुद्धि

ब्रह्म प्राप्ति का पहला चरण है अपने अंतःकरण को शुद्ध करना। अंतःकरण में मन और बुद्धि दोनों शामिल हैं। इसे शुद्ध करने के लिए:

  • ध्यान और योग का अभ्यास करें
  • सत्कर्मों में लीन रहें
  • विचारों को नियंत्रित करें

2. दिव्य कृपा का आह्वान

जब अंतःकरण शुद्ध हो जाता है, तब भगवान की दिव्य कृपा स्वतः ही प्राप्त होती है। यह कृपा तीन रूपों में प्रकट होती है:

  1. दिव्य ज्ञान
  2. दिव्य आनंद
  3. दिव्य प्रेम

3. माया से मुक्ति

भगवान की कृपा प्राप्त होने पर, आत्मा माया के बंधनों से मुक्त हो जाती है। इस प्रक्रिया में:

  • संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं
  • अविद्या (अज्ञान) दूर हो जाती है
  • त्रिगुणों का प्रभाव समाप्त हो जाता है

4. जीवनमुक्त अवस्था

इस अवस्था में पहुंचकर, आत्मा जीवनमुक्त हो जाती है। इसका अर्थ है:

  • शरीर में रहते हुए भी मुक्त रहना
  • भौतिक बंधनों से ऊपर उठना
  • परम आनंद की अनुभूति

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