भगवद गीता: अध्याय 2, श्लोक 62
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गत्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥62॥
ध्यायत:-चिन्तन करते हुए; विषयान्–इन्द्रिय विषय; पुंस:-मनुष्य की; सङ्गः-आसक्ति; तेषु-उनके (इन्द्रिय विषय); उपजायते-उत्पन्न होना; सङ्गात्-आसक्ति से; सञ्जायते विकसित होती है। कामः-इच्छा; कामात्-कामना से; क्रोध:-क्रोध; अभिजायते-उत्पन्न होता है।
Hindi translation: इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करते हुए मनुष्य उनमें आसक्त हो जाता है और आसक्ति कामना की ओर ले जाती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है।
शीर्षक: मानसिक रोग और मनोविज्ञान: एक वैदिक परिप्रेक्ष्य
प्रस्तावना:
वैदिक ग्रंथों में मानसिक रोगों की अवधारणा और आधुनिक मनोविज्ञान के बीच एक गहरा संबंध है। इस लेख में हम इस संबंध को समझने का प्रयास करेंगे और यह जानेंगे कि कैसे प्राचीन ज्ञान आज भी हमारे जीवन में प्रासंगिक है।
मानस रोग: वैदिक दृष्टिकोण
वैदिक ग्रंथों में क्रोध, लालच, वासना जैसे नकारात्मक भावों को ‘मानस रोग’ या मानसिक रोग के रूप में वर्णित किया गया है। राम चरितमानस में कहा गया है:
“मानस रोग कछुक में गाए। हहिं सब के लखि बिरलेन्ह पाए।”
इसका अर्थ है कि जहाँ हम शारीरिक रोगों से भलीभांति परिचित हैं, वहीं हम अक्सर अपने मानसिक रोगों को पहचानने में विफल रहते हैं।
मानसिक रोगों की पहचान का महत्व
- शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रभाव
- जीवन की गुणवत्ता में सुधार
- आध्यात्मिक विकास में सहायक
मनोविज्ञान: आधुनिक दृष्टिकोण
मनोविज्ञान मानव मन और व्यवहार को समझने का विज्ञान है। यह मानसिक रोगों के विश्लेषण और उपचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
पश्चिमी मनोविज्ञान की सीमाएँ
- अनुमान पर आधारित निष्कर्ष
- मन की वास्तविकता का पूर्ण ज्ञान नहीं
- सांस्कृतिक विविधता की उपेक्षा
श्रीकृष्ण का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण
श्रीकृष्ण ने गीता में मन के कार्य-कलापों का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। उनके अनुसार:
- बार-बार चिंतन से आसक्ति उत्पन्न होती है
- आसक्ति से कामना जन्म लेती है
- कामना से लोभ और क्रोध पैदा होते हैं
आसक्ति का उदाहरण
स्थिति | परिणाम |
---|---|
छात्र का लड़की पर मोहित होना | पढ़ाई में ध्यान न लगना |
मदिरापान में आसक्ति | बार-बार पीने की इच्छा |
धूम्रपान में रुचि | लगातार सिगरेट की तलब |
कामना के दुष्परिणाम
- लोभ की उत्पत्ति
- क्रोध का जन्म
- मानसिक शांति का नाश
श्रीमद्भागवतम् का संदेश
“यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
न दुह्यन्ति मन:प्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते ।।”
अर्थात, सांसारिक भोग-विलास से कामनाओं की तृप्ति नहीं होती।
निष्कर्ष
वैदिक ज्ञान और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों ही मानसिक स्वास्थ्य के महत्व को रेखांकित करते हैं। हमें अपने मन के विकारों को पहचानना और उनका समाधान खोजना चाहिए। यह न केवल हमारे व्यक्तिगत विकास के लिए आवश्यक है, बल्कि समाज के समग्र कल्याण के लिए भी महत्वपूर्ण है।
इस प्रकार, प्राचीन ज्ञान और आधुनिक विज्ञान का समन्वय करके हम एक स्वस्थ और संतुलित जीवन की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
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