भगवद गीता: अध्याय 2, श्लोक 16

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥16॥
न–नहीं; असतः-अस्थायी का; विद्यते-वहां है; भावः-सत्ता है; न कभी नहीं; अभावः-अन्त; विद्यते-वहाँ है; सतः-शाश्वत का; अभयोः-दोनों का; अपि-भी; दृष्ट:-देखा गया; अन्तः-निष्कर्ष; तु–निस्सन्देह; अनयोः-इनका; तत्त्व-सत्य के; दर्शिभिः-तत्त्वदर्शियों द्वारा।
Hindi translation: अनित्य शरीर का चिरस्थायित्व नहीं है और शाश्वत आत्मा का कभी अन्त नहीं होता है। तत्त्वदर्शियों द्वारा भी इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन करने के पश्चात निकाले गए निष्कर्ष के आधार पर इस यथार्थ की पुष्टि की गई है।
श्वेताश्वतरोपनिषद् के अनुसार संसार के तीन नित्य तत्त्व
श्वेताश्वतरोपनिषद् हमें संसार के तीन मूल तत्त्वों के बारे में गहन ज्ञान प्रदान करता है। यह उपनिषद् बताता है कि इस विश्व में तीन शाश्वत तत्त्व हैं – भगवान, जीवात्मा और माया। आइए इन तीनों तत्त्वों को विस्तार से समझें।
1. भगवान: सत्-चित्-आनन्द स्वरूप
भगवान सबसे महत्वपूर्ण और सर्वोच्च तत्त्व हैं। वे नित्य हैं, इसलिए उन्हें ‘सत्’ कहा जाता है। वेदों में भगवान को सत्-चित्-आनन्द स्वरूप बताया गया है:
- सत्: शाश्वत या नित्य
- चित्: सर्वज्ञ या पूर्ण ज्ञान
- आनन्द: परम आनंद का स्रोत
भगवान इन तीनों गुणों के असीमित भंडार हैं। वे सृष्टि के नियंता और पालनकर्ता हैं।
2. जीवात्मा: अणु सत्-चित्-आनन्द
जीवात्मा भी अविनाशी है, इसलिए यह भी ‘सत्’ है। हालांकि शरीर नाशवान है, आत्मा शाश्वत है। जीवात्मा की प्रकृति भी सत्-चित्-आनन्द है, लेकिन सीमित मात्रा में:
- अणु सत्य: सीमित नित्यता
- अणु चित्: सीमित ज्ञान
- अणु आनन्दमय: सीमित आनंद
जीवात्मा भगवान का अंश है, लेकिन माया के प्रभाव में बंधी हुई है।
3. माया: नित्य लेकिन परिवर्तनशील
माया वह तत्त्व है जिससे भौतिक संसार का निर्माण होता है। यह भी नित्य है, लेकिन इसकी अभिव्यक्तियाँ अस्थायी हैं:
- नित्य तत्त्व: माया का मूल स्वरूप शाश्वत है
- परिवर्तनशील प्रकटीकरण: माया से बने पदार्थ नाशवान हैं
इसलिए, संसार को ‘असत्’ या अस्थायी कहा जाता है, क्योंकि यह माया के कारण अस्तित्व में है।
संसार: असत् लेकिन मिथ्या नहीं
महत्वपूर्ण बात यह है कि संसार को ‘असत्’ कहना और ‘मिथ्या’ कहना दो अलग बातें हैं:
- असत्: क्षणिक या अस्थायी
- मिथ्या: पूरी तरह से अस्तित्वहीन
संसार असत् है, लेकिन मिथ्या नहीं। इसका अस्तित्व है, लेकिन यह स्थायी नहीं है।
संसार की वास्तविकता: एक गहन विश्लेषण
ब्रह्मज्ञान और संसार का अनुभव
कुछ दार्शनिक मानते हैं कि संसार केवल अज्ञान के कारण दिखाई देता है और ब्रह्मज्ञान प्राप्त होने पर यह अनुभव समाप्त हो जाता है। लेकिन यह विचार कई प्रश्न खड़े करता है:
- ब्रह्मज्ञानी संतों द्वारा धार्मिक ग्रंथों की रचना
- उनके द्वारा भौतिक वस्तुओं का उपयोग
- उनकी शारीरिक आवश्यकताएँ, जैसे भोजन
वैदिक दृष्टिकोण
वैदिक ग्रंथ स्पष्ट करते हैं कि ब्रह्मज्ञानी संतों को भी सांसारिक आवश्यकताएँ होती हैं:
“पैशवादिभिश्चाविशेषत”
अर्थात, ब्रह्मज्ञानी संतों को भी जानवरों की तरह भूख लगती है।
भगवान की सर्वव्यापकता
तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा गया है:
सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत स तपस्तप्त्वा
इद्गं सर्वमसृजत यदिदं किं च। तत्सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत्।
तदनुप्रविश्य सच्च त्यच्चाभवत्। निरुतं चानिरुतं च। निलयनं
चानिलयनं च। विज्ञानं चाविज्ञानं च। सत्यं चानृतं चा सत्यमभवत्।
यदिदं किं च। तत्सत्यमित्याचक्षते। तदप्येष श्लोको भवति।
यह मंत्र बताता है कि भगवान न केवल सृष्टि का निर्माण करते हैं, बल्कि वे स्वयं प्रत्येक कण में व्याप्त हो जाते हैं।
निष्कर्ष: संसार का सत्य स्वरूप
श्वेताश्वतरोपनिषद् और अन्य वैदिक ग्रंथों के अध्ययन से हम निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल सकते हैं:
- संसार का अस्तित्व वास्तविक है, लेकिन यह स्थायी नहीं है।
- इसे ‘असत्’ या अस्थायी कहा जा सकता है, लेकिन ‘मिथ्या’ या अस्तित्वहीन नहीं।
- भगवान, जीवात्मा और माया तीनों नित्य तत्त्व हैं, जो इस विश्व के आधार हैं।
- भगवान की सर्वव्यापकता संसार के अस्तित्व को और पुष्ट करती है।
इस प्रकार, हम समझ सकते हैं कि संसार एक जटिल और गतिशील वास्तविकता है, जो न तो पूरी तरह से मिथ्या है और न ही पूरी तरह से शाश्वत। यह एक ऐसा तत्त्व है जो परिवर्तनशील है लेकिन जिसका अस्तित्व निश्चित है, जो हमें जीवन के गहन रहस्यों को समझने और आध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर होने का अवसर प्रदान करता है।
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