भगवद गीता: अध्याय 3, श्लोक 29

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥29॥
आश्चर्यवत्-आश्चर्य के रूप में; पश्यति-देखता है; कश्चित्-कोई; एनम् इस आत्मा को; आश्चर्यवत्-आश्चर्य के समान; वदति-कहता है; तथा जिस प्रकार; एव–वास्तव में; च-भी; अन्यः-दूसरा; आश्चर्यवत्-आश्चर्यः च-और; एनम्-इस आत्मा को; अन्यः-दूसरा; शृणोति-सुनता है; श्रृत्वा-सुनकर; अपि-भी; एनम्-इस आत्मा को; वेद-जानता है; न कभी नहीं; च-तथा; एव-नि:संदेह; कश्चित्-कुछ।
Hindi translation: कुछ लोग आत्मा को एक आश्चर्य के रूप में देखते हैं, कुछ लोग इसे आश्चर्य बताते हैं और कुछ इसे आश्चर्य के रूप मे सुनते हैं जबकि अन्य लोग इसके विषय में सुनकर भी कुछ समझ नहीं पाते।
आत्मा और प्रकृति: श्रीमद्भगवद्गीता का गहन विश्लेषण
प्रस्तावना
श्रीमद्भगवद्गीता हमारे जीवन के मूलभूत प्रश्नों का उत्तर देने वाला एक अद्भुत ग्रंथ है। इसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझाया है। आज हम इसी ग्रंथ के एक महत्वपूर्ण अंश पर विचार करेंगे, जो आत्मा, प्रकृति और मानव व्यवहार के बीच के संबंध को स्पष्ट करता है।
आत्मा और गुणों का संबंध
आत्मा की स्वतंत्रता
श्रीकृष्ण के अनुसार, आत्मा गुणों और उनकी क्रियाओं से पृथक है। यह एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो हमें बताता है कि हमारा वास्तविक स्वरूप इन भौतिक गुणों से परे है।
प्रश्न का उदय
अब एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है: यदि आत्मा इतनी स्वतंत्र है, तो फिर मनुष्य विषय भोगों की ओर क्यों आकर्षित होते हैं?
माया का प्रभाव
प्राकृत शक्ति के तीन गुण
श्रीकृष्ण इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि मनुष्य प्राकृत शक्ति के तीन गुणों – सत्व, रज और तम – से मोहित होकर स्वयं को कर्ता मान लेते हैं।
मोह का परिणाम
इस मोह के कारण, मनुष्य:
- कामुकता की ओर आकर्षित होते हैं
- मानसिक आनंद की प्राप्ति के लिए प्रयास करते हैं
- फल की इच्छा से कर्म करते हैं
ज्ञानी और अज्ञानी का अंतर
ज्ञानी का दृष्टिकोण
ज्ञानी मनुष्य, जिसे श्रीकृष्ण ‘कृत्स्नवित्’ कहते हैं, इन गुणों के प्रभाव को समझता है और उनसे प्रभावित नहीं होता।
अज्ञानी की स्थिति
अज्ञानी मनुष्य, जिसे ‘अकृत्स्नवित’ कहा गया है, इन गुणों के प्रभाव में रहकर कर्म करता है।
ज्ञानी का कर्तव्य
सहानुभूति और मार्गदर्शन
श्रीकृष्ण ज्ञानी मनुष्यों को यह सलाह देते हैं कि वे अज्ञानी लोगों के मन को विक्षुब्ध न करें। इसका अर्थ है:
- अपने विचारों को बलपूर्वक न थोपें
- धैर्य से मार्गदर्शन करें
- अज्ञानी को धीरे-धीरे आध्यात्मिक पथ पर लाएं
उचित मार्गदर्शन का महत्व
निम्न तालिका इस बात को स्पष्ट करती है कि ज्ञानी को किस प्रकार अज्ञानी का मार्गदर्शन करना चाहिए:
क्या करें | क्या न करें |
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धैर्यपूर्वक समझाएं | अपने विचार थोपें |
नियत कर्म करने का उपदेश दें | कर्म त्याग का आग्रह करें |
आध्यात्मिक ज्ञान धीरे-धीरे दें | एकाएक पूर्ण ज्ञान देने का प्रयास करें |
व्यावहारिक उदाहरण दें | केवल सैद्धांतिक ज्ञान पर जोर दें |
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण के इस उपदेश से हमें यह सीख मिलती है कि आध्यात्मिक पथ पर चलना एक क्रमिक प्रक्रिया है। ज्ञानी व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह दूसरों को इस पथ पर चलने में सहायता करे, लेकिन बिना किसी दबाव या बल के।
यह ज्ञान हमें न केवल अपने आध्यात्मिक विकास में मदद करता है, बल्कि दूसरों के साथ हमारे व्यवहार को भी प्रभावित करता है। हमें याद रखना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी गति से विकास करता है, और हमारा कर्तव्य है कि हम सभी के लिए एक सहायक और समझदार मार्गदर्शक बनें।
इस प्रकार, श्रीमद्भगवद्गीता हमें न केवल आत्मज्ञान देती है, बल्कि समाज में रहने और दूसरों के साथ व्यवहार करने का सही तरीका भी सिखाती है। यह ज्ञान हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन दोनों को समृद्ध बनाता है।
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