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भगवद गीता: अध्याय 3, श्लोक 9

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥9॥


यज्ञ-अर्थात-यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्म; कर्मणः-कर्म की अपेक्षा; अन्यत्र-अन्यथा; लोक:-भौतिक संसार; अयम्-यह; कर्मबन्धनः-किसी के कर्मों के बन्धन; तत्-वह; अर्थम्-के लिए; कर्म-कर्म; कौन्तेय-कुन्तिपुत्र, अर्जुन; मुक्तसङ्गगः-आसक्ति रहित; समाचर-ध्यान से कार्य करना।

Hindi translation: परमात्मा के लिए यज्ञ के रूप में कर्मों का निष्पादन करना चाहिए अन्यथा कर्म इस भौतिक संसार में बंधन का कारण बनेंगे। इसलिए हे कुन्ति पुत्र! भगवान के सुख के लिए और फल की आसक्ति के बिना अपने नियत कर्म करो।

कर्मयोग: जीवन जीने की कला

कर्म हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग है। हर व्यक्ति अपने जीवन में किसी न किसी प्रकार का कर्म करता रहता है। लेकिन क्या हम जानते हैं कि हमारे कर्म का प्रभाव क्या होता है? क्या हमारे कर्म हमें बंधन में डालते हैं या मुक्ति की ओर ले जाते हैं? आइए इस लेख में हम कर्मयोग के महत्व और उसके सही अर्थ को समझने का प्रयास करें।

कर्म का स्वरूप

कर्म स्वयं में न तो अच्छा होता है और न ही बुरा। कर्म का प्रभाव उसके पीछे छिपे उद्देश्य पर निर्भर करता है। इसे समझने के लिए हम एक उदाहरण ले सकते हैं:

चाकू का उपयोग: दो अलग दृष्टिकोण

  1. डाकू का उद्देश्य: हत्या करना
  2. सर्जन का उद्देश्य: जीवन बचाना

यहाँ चाकू एक ही है, लेकिन उसका प्रयोग करने वाले व्यक्ति के उद्देश्य अलग-अलग हैं। इसी प्रकार, हमारे कर्म भी हमारे उद्देश्य के अनुसार फल देते हैं।

कर्म और मानसिकता

शेक्सपियर ने कहा है – “कोई भी कर्म बुरा या अच्छा नहीं होता किन्तु हमारी सोच इन्हें ऐसा बनाती है।” यह कथन बताता है कि हमारी मानसिकता ही हमारे कर्मों को शुभ या अशुभ बनाती है।

कर्म के दो रूप

  1. बंधन का कारण: इंद्रिय सुख और अहं की तुष्टि के लिए किए गए कर्म
  2. उत्थान का कारण: भगवान के सुख के लिए यज्ञ रूप में किए गए कर्म

कर्म की अनिवार्यता

हमारी प्रकृति है कि हम कर्म करें। हम एक क्षण के लिए भी अकर्मा नहीं रह सकते। यदि हम भगवान को अर्पण किए बिना कोई कार्य करते हैं, तो हम अपने मन और इंद्रियों की तुष्टि के लिए कार्य करने के लिए विवश होंगे।

समर्पण की भावना

जब हम किसी कार्य को समर्पण की भावना से करते हैं, तब हमें यह अनुभव होता है कि:

  1. सारा संसार भगवान से संबंधित है
  2. सभी वस्तुएँ भगवान की सेवा के लिए हैं

राजा रघु का आदर्श

राजा रघु ने कर्मयोग का उच्च आदर्श स्थापित किया। उन्होंने विश्वजीत यज्ञ का अनुष्ठान किया, जिसमें उन्होंने अपनी सारी संपत्ति दान कर दी।

रघु की मनोदशा

स विश्वजितम् आजह्वे यज्ञं सर्वस्व दक्षिणम्।
आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचाम् इव।।

इस श्लोक का अर्थ है:

“रघु ने इस भावना से यज्ञ किया। जिस प्रकार बादल पृथ्वी से अपने सुख के लिए जल एकत्रित नहीं करते अपितु वर्षा के रूप में उसे पृथ्वी को लौटा देते हैं। इसी प्रकार राजा द्वारा जनता से कर के रूप में इकट्ठा की गयी धन सम्पदा उसके सुख के लिए नहीं होती अपितु भगवान के सुख के लिए होती है।”

रघु की विनम्रता

यज्ञ के बाद रघु ने एक रोचक घटना का सामना किया:

  1. रघु भिखारी के वेश में निकले
  2. लोगों ने उनकी प्रशंसा की
  3. रघु ने लोगों को समझाया कि उन्होंने कुछ दान नहीं किया

रघु का तर्क था: “जब मैं संसार में आया था, तब मेरे पास क्या था? क्या मैंने खाली हाथ जन्म नहीं लिया? तब मेरा क्या था जिसका मैंने त्याग कर दिया?”

कर्मयोग की सद्भावना

कर्मयोग हमें सिखाता है:

  1. समस्त संसार भगवान का है
  2. सब कुछ भगवान को संतुष्ट करने के लिए है
  3. कर्तव्यों का निर्वाहन भगवान के सुख के लिए करना चाहिए

भगवान विष्णु का उपदेश

भगवान विष्णु ने प्रचेताओं को इस प्रकार उपदेश दिया:

गृहेधाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मणाम् ।
मद्वार्तायातयामानां न बन्धाय गृहा मता।।

इसका अर्थ है:

“सच्चे कर्मयोगी अपनी गृहस्थी के कार्यों को पूरा करते हुए अपने सभी कार्यों को मेरे यज्ञ के रूप में करते हैं और मुझे सभी कर्मों का भोक्ता मानते हैं। उन्हें जब भी खाली समय मिलता है, तब उस समय वे मेरी महिमा का श्रवण एवं गान करते हैं। ऐसे मनुष्य संसार में रहते हुए कभी भी अपने कर्मों के बंधन में नहीं फंसते।”

कर्मयोग का व्यावहारिक महत्व

कर्मयोग का सिद्धांत हमारे दैनिक जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है। यह हमें सिखाता है कि:

  1. हर कार्य को समर्पण की भावना से करें
  2. अपने कर्तव्यों का पालन करें, लेकिन फल की चिंता न करें
  3. अपने कर्मों को भगवान को अर्पित करें

कर्मयोग के लाभ

लाभविवरण
मानसिक शांतिफल की चिंता न करने से तनाव कम होता है
आध्यात्मिक उन्नतिभगवान के प्रति समर्पण से आध्यात्मिक विकास होता है
कर्म बंधन से मुक्तिनिःस्वार्थ भाव से किए गए कर्म बंधन नहीं बनते
जीवन का उद्देश्यहर कार्य में उच्च उद्देश्य की प्राप्ति

निष्कर्ष

कर्मयोग हमें सिखाता है कि जीवन में हर कार्य को एक यज्ञ की तरह करना चाहिए। यह हमें अपने कर्तव्यों का पालन करने के साथ-साथ उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर भी ले जाता है। कर्मयोग की शिक्षा को अपनाकर हम न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं, बल्कि समाज और विश्व के कल्याण में भी योगदान दे सकते हैं।

हमें याद रखना चाहिए कि हमारे कर्म ही हमारे चरित्र का निर्माण करते हैं और हमारे भविष्य को आकार देते हैं। इसलिए, हर कदम पर सावधानी से और समर्पण की भावना से कर्म करना चाहिए। कर्मयोग की इस शिक्षा को अपनाकर हम अपने जीवन को साર्थक बना सकते हैं और आत्मिक उन्नति की ओर अग्रसर हो सकते हैं।

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