Bhagwat Geeta

भगवद गीता: अध्याय 5, श्लोक 4

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥4॥

सांख्य-कर्म का त्याग; योगौ-कर्मयोगः पृथक्-भिन्न; बाला:-अल्पज्ञ; प्रवदन्ति-कहते हैं; न कभी नहीं; पण्डिताः-विद्वान्; एकम्-एक; अपि-भी; आस्थित:-स्थित होना; सम्यक्-पूर्णतया; उभयोः-दोनों का; विन्दते-प्राप्त करना है; फलम् परिणाम।

Hindi translation: केवल अज्ञानी ही ‘सांख्य’ या ‘कर्म संन्यास’ को कर्मयोग से भिन्न कहते हैं जो वास्तव में ज्ञानी हैं, वे यह कहते हैं कि इन दोनों में से किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से वे दोनों का फल प्राप्त कर सकते हैं।

कर्मयोग और कर्म संन्यास: जीवन जीने की दो विधियाँ

परिचय

भारतीय दर्शन में कर्मयोग और कर्म संन्यास दो महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं जो जीवन जीने के विभिन्न तरीकों का प्रतिनिधित्व करती हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने इन दोनों मार्गों की विस्तृत व्याख्या की है। आइए इन दोनों मार्गों को समझें और देखें कि कैसे ये एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं।

कर्मयोग: कर्म के माध्यम से योग

कर्मयोग का अर्थ

कर्मयोग का अर्थ है कर्म के माध्यम से योग या ईश्वर से जुड़ाव। इस मार्ग में व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करता है, लेकिन फल की चिंता किए बिना।

कर्मयोग के मुख्य सिद्धांत

  1. निष्काम कर्म
  2. समर्पण भाव
  3. कर्तव्य पालन
  4. फल की अनासक्ति

युक्त वैराग्य: कर्मयोग का आधार

युक्त वैराग्य कर्मयोग का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसमें व्यक्ति संसार को भगवान की शक्ति के रूप में देखता है।

युक्त वैराग्य के लक्षणफल
सेवा भावआत्मिक संतुष्टि
अनासक्तिमानसिक शांति
समर्पणआध्यात्मिक उन्नति

कर्म संन्यास: कर्म का त्याग

कर्म संन्यास का अर्थ

कर्म संन्यास का अर्थ है कर्म का त्याग। इस मार्ग में व्यक्ति सांसारिक कर्मों से दूर हटकर पूर्णतः आध्यात्मिक साधना में लीन हो जाता है।

कर्म संन्यास के प्रकार

फल्गु वैराग्य

फल्गु वैराग्य एक प्रकार का अस्थायी संन्यास है जिसमें व्यक्ति कठिनाइयों से बचने के लिए संसार का त्याग करता है।

पूर्ण संन्यास

पूर्ण संन्यास में व्यक्ति गहन आध्यात्मिक साधना के लिए सभी सांसारिक कर्मों का त्याग कर देता है।

कर्मयोग और कर्म संन्यास: एक ही सिक्के के दो पहलू

श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट किया है कि कर्मयोग और कर्म संन्यास दोनों एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं। दोनों मार्गों का उद्देश्य आत्मज्ञान और मोक्ष प्राप्ति है।

समानताएँ

  1. आत्मज्ञान का लक्ष्य
  2. अनासक्ति का महत्व
  3. ईश्वर के प्रति समर्पण

अंतर

मुख्य अंतर कर्म करने या न करने में है। कर्मयोगी कर्म करता है, जबकि संन्यासी कर्म का त्याग करता है।

प्राचीन भारत के महान कर्मयोगी

भारतीय इतिहास में कई ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने कर्मयोग का पालन किया। ये लोग बाहर से सामान्य व्यक्ति लगते थे, लेकिन अंदर से पूर्ण संन्यासी थे।

  1. राजा जनक
  2. अर्जुन
  3. प्रह्लाद
  4. ध्रुव
  5. अंबरीष
  6. पृथु
  7. विभीषण
  8. युधिष्ठिर

इन महापुरुषों ने अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए भी आंतरिक रूप से पूर्ण वैराग्य का जीवन जिया।

आधुनिक जीवन में कर्मयोग का महत्व

आज के व्यस्त जीवन में कर्मयोग एक महत्वपूर्ण जीवन दर्शन है। यह हमें सिखाता है कि कैसे हम अपने दैनिक कार्यों को करते हुए भी आध्यात्मिक उन्नति कर सकते हैं।

कर्मयोग के लाभ

  1. तनाव मुक्त जीवन
  2. कार्य में उत्कृष्टता
  3. आंतरिक शांति
  4. सामाजिक दायित्व का निर्वहन
  5. आत्मिक विकास

निष्कर्ष

कर्मयोग और कर्म संन्यास दोनों ही आत्मज्ञान और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग हैं। श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट किया है कि दोनों मार्गों में से किसी एक का अनुसरण करने से दोनों का फल प्राप्त होता है। महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति अपनी प्रकृति और परिस्थितियों के अनुसार उचित मार्ग का चयन करे।

अंत में, श्रीमद्भागवतम् का एक श्लोक याद रखने योग्य है:

गृहीत्वापीन्द्रियैरर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति।
विष्णोर्मायामिदं पश्यन् स वै भागवतोत्तमः।।
***(श्रीमद्भागवतम्-11.2.48) ***

अर्थात, “वह जो इंद्रियों के विषयों को ग्रहण तो करता है किंतु न तो उनके लिए ललचाता है और न ही उनसे दूर भागता है। वह इस दिव्य चेतना में स्थित होता है कि संसार में सब कुछ भगवान की शक्ति है और इनका उपभोग उसी की सेवा के लिए करना चाहिए, ऐसा व्यक्ति परम भक्त होता है।”

इस प्रकार, चाहे हम कर्मयोग का मार्ग चुनें या कर्म संन्यास का, महत्वपूर्ण है कि हम अपने जीवन को ईश्वर के प्रति समर्पित करें और निःस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करें। यही सच्चे आध्यात्मिक जीवन का सार है।

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