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भगवद गीता: अध्याय 6, श्लोक 3

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥3॥


आरूरूक्षो:-नवप्रशिक्षुः मुने:-मुनि की; योगम्-योगः कर्म बिना आसक्ति के कार्य करना; कारणम्-कारण; उच्यते-कहा जाता है; योगारूढस्य-योग में सिद्धि प्राप्त; तस्य-उसका; एव-निश्चय ही; शमः-ध्यान; कारणम्-कारण; उच्यते-कहा जाता है।

Hindi translation: जो योग में पूर्णता की अभिलाषा करते हैं उनके लिए बिना आसक्ति के कर्म करना साधन कहलाता है और वे योगी जिन्हें पहले से योग में सिद्धि प्राप्त है, उनके लिए साधना में परमशांति को साधन कहा जाता है।

योग: आत्म-कल्याण का मार्ग

प्रस्तावना

जीवन की जटिलताओं में, मनुष्य हमेशा से आत्म-कल्याण और आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग की खोज में रहा है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने इस मार्ग को ‘योग’ के रूप में प्रस्तुत किया है। आइए हम योग के इस गहन विषय को समझें और देखें कि यह हमारे जीवन में कैसे महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

योग के दो मार्ग: चिंतन और कर्म

श्रीकृष्ण ने गीता के तीसरे अध्याय में दो मार्गों का उल्लेख किया है:

  1. चिंतन का मार्ग: यह ज्ञान योग या ध्यान योग के रूप में जाना जाता है।
  2. कर्म का मार्ग: इसे कर्म योग कहा जाता है।

कर्म योग की श्रेष्ठता

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म योग का अनुसरण करने का उपदेश दिया। यह निर्णय निम्नलिखित कारणों पर आधारित था:

चिंतन का मार्गकर्म का मार्ग
मानसिक प्रक्रिया पर केंद्रितक्रियाशीलता पर आधारित
अधिक अमूर्तअधिक ठोस और व्यावहारिक
उच्च स्तर की एकाग्रता की आवश्यकतादैनिक जीवन में आसानी से एकीकृत
शुरुआती साधकों के लिए चुनौतीपूर्णअधिकांश लोगों के लिए सुलभ

कर्म योग से संन्यास तक की यात्रा

कर्म योग का महत्व

कर्म योग एक साधन है, न कि अंतिम लक्ष्य। यह निम्नलिखित तरीकों से हमारी मदद करता है:

  1. मन का शुद्धिकरण: नि:स्वार्थ कर्म से मन की मलिनताएँ दूर होती हैं।
  2. आत्म-जागृति: कर्म के माध्यम से हम अपने स्वभाव और प्रवृत्तियों को बेहतर समझते हैं।
  3. सेवा भाव का विकास: दूसरों की सेवा करके हम अहंकार को कम करते हैं।
  4. आध्यात्मिक ज्ञान की नींव: कर्म योग गहन आध्यात्मिक अनुभूतियों के लिए आधार तैयार करता है।

संन्यास की ओर प्रगति

जैसे-जैसे साधक कर्म योग में प्रगति करता है, वह धीरे-धीरे संन्यास की ओर बढ़ता है। यह प्रक्रिया निम्नलिखित चरणों से गुजरती है:

  1. कर्म में निष्काम भाव: फल की इच्छा के बिना कर्म करना।
  2. आत्म-चिंतन की वृद्धि: कर्म करते हुए भी आत्म-जागृति बढ़ना।
  3. वैराग्य का उदय: भौतिक आसक्तियों से क्रमिक मुक्ति।
  4. आंतरिक शांति की प्राप्ति: मन की चंचलता का शमन।
  5. संन्यास की प्राप्ति: बाहरी क्रियाकलापों से पूर्ण विरक्ति।

योग: लक्ष्य और प्रक्रिया

योग शब्द की दोहरी प्रकृति को समझना महत्वपूर्ण है:

योग as लक्ष्य

जब हम योग को लक्ष्य के रूप में देखते हैं, तो यह निम्नलिखित अर्थ रखता है:

योग as प्रक्रिया

प्रक्रिया के रूप में, योग निम्नलिखित तत्वों को समाहित करता है:

  1. शारीरिक अभ्यास: आसन, प्राणायाम आदि।
  2. मानसिक अनुशासन: ध्यान, एकाग्रता के अभ्यास।
  3. नैतिक जीवन: यम और नियम का पालन।
  4. भक्ति: ईश्वर के प्रति समर्पण और प्रेम।
  5. ज्ञान का अर्जन: शास्त्रों का अध्ययन और आत्म-चिंतन।

योग की सीढ़ी: आध्यात्मिक उन्नति का प्रतीक

योग को एक सीढ़ी के रूप में समझा जा सकता है, जो हमें भौतिक स्तर से आध्यात्मिक स्तर तक ले जाती है।

सीढ़ी के निचले पायदान

  1. शारीरिक स्वास्थ्य: हठ योग, आसन, प्राणायाम।
  2. मानसिक स्वास्थ्य: ध्यान, विपश्यना।
  3. नैतिक जीवन: यम-नियम का पालन।

मध्य पायदान

  1. भावनात्मक संतुलन: भक्ति योग।
  2. बौद्धिक विकास: ज्ञान योग, स्वाध्याय।
  3. कर्म में निष्काम भाव: कर्म योग।

उच्च पायदान

  1. आत्म-साक्षात्कार: कुंडलिनी जागरण।
  2. समाधि: निर्विकल्प समाधि।
  3. मोक्ष: परम सत्य की अनुभूति।

योग-आरुरुक्षो और योग-आरुढस्य: दो श्रेणियाँ

श्रीकृष्ण ने साधकों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया है:

योग-आरुरुक्षो (योग की इच्छा रखने वाले)

  1. आध्यात्मिक जिज्ञासा
  2. साधना में नियमितता का अभाव
  3. भौतिक आकर्षण का प्रभाव
  4. मन की चंचलता
  1. कर्म योग का अभ्यास
  2. नियमित ध्यान
  3. सत्संग
  4. शास्त्र अध्ययन

योग-आरुढस्य (योग में उन्नत)

  1. मन की स्थिरता
  2. वैराग्य
  3. आत्म-नियंत्रण
  4. समता भाव
  1. गहन ध्यान
  2. आत्म-चिंतन
  3. सेवा भाव
  4. ज्ञान का प्रसार

योग में उन्नति के मार्ग

योग में प्रगति करने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है:

  1. नियमितता: दैनिक साधना का महत्व।
  2. धैर्य: तत्काल परिणामों की अपेक्षा न करना।
  3. गुरु मार्गदर्शन: अनुभवी मार्गदर्शक की आवश्यकता।
  4. स्वाध्याय: निरंतर अध्ययन और आत्म-विश्लेषण।
  5. सेवा: निःस्वार्थ सेवा द्वारा अहंकार का शमन।
  6. संग: सकारात्मक और आध्यात्मिक वातावरण का महत्व।
  7. आहार-विहार: शुद्ध आहार और स्वस्थ जीवनशैली।

योग साधना के लाभ

योग साधना से जीवन के विभिन्न पहलुओं में सकारात्मक परिवर्तन आते हैं:

  1. शारीरिक स्वास्थ्य: बेहतर स्वास्थ्य, ऊर्जा और जीवन शक्ति।
  2. मानसिक शांति: तनाव में कमी, बेहतर एकाग्रता।
  3. भावनात्मक संतुलन: नकारात्मक भावनाओं पर नियंत्रण।
  4. आध्यात्मिक विकास: आत्म-ज्ञान और ईश्वरीय अनुभूति।
  5. सामाजिक संबंध: बेहतर संवाद और समझ।
  6. कार्य क्षमता: उत्पादकता और रचनात्मकता में वृद्धि।
  7. जीवन दृष्टि: व्यापक और सकारात्मक जीवन दृष्टिकोण।

योग साधना में चुनौतियाँ और समाधान

योग के मार्ग पर चलते हुए कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है:

  1. समय की कमी

2. मन की चंचलता

3. भौतिक आकर्षण

4. निराशा और हताशा

5. शारीरिक सीमाएँ

6. सामाजिक दबाव

7. ज्ञान की कमी

निष्कर्ष

अंत में, योग एक ऐसी विधा है जो हमें न केवल बेहतर जीवन जीने का तरीका सिखाती है, बल्कि जीवन के उच्चतम लक्ष्य – आत्म-साक्षात्कार तक पहुंचने में मदद करती है। श्रीकृष्ण के शब्दों में, योग समत्व है – सफलता और असफलता में समान भाव रखना, कर्म करते हुए भी आसक्ति से मुक्त रहना। यह समत्व भाव ही हमें जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में संतुलित और शांत रहने में मदद करता है।

आज के समय में, जब जीवन की गति तेज है और तनाव अधिक है, योग हमें अपने आप से जुड़ने, अपने आसपास के वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने, और अपने अस्तित्व के गहरे अर्थ को समझने का अवसर प्रदान करता है। यह हमें सिखाता है कि कैसे बाहरी दुनिया में सक्रिय रहते हुए भी आंतरिक शांति बनाए रखी जा सकती है।

योग की यह यात्रा न केवल व्यक्तिगत विकास का मार्ग है, बल्कि यह समाज और विश्व के कल्याण का भी मार्ग है। जैसे-जैसे हम योग के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं, हम न केवल अपने जीवन में, बल्कि अपने आसपास के लोगों के जीवन में भी सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं।

इसलिए, आइए हम सभी अपने जीवन में योग के सिद्धांतों को अपनाएं, इसकी गहराइयों में उतरें, और अपने अंदर छिपी असीम संभावनाओं को साकार करें। योग हमारा मार्गदर्शक है, हमारा साथी है, और अंततः हमारा लक्ष्य भी। यह हमें सिखाता है कि कैसे जीवन को एक कला के रूप में जिया जाए – संतुलित, सार्थक और आनंदमय।

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