पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदरः॥15॥
पाञ्चजन्यं–पाञ्चजन्य नामक शंख; ऋषीकेश:-श्रीकृष्ण, जो मन और इन्द्रियों के स्वामी हैं; देवदत्तम-देवदत्त नामक शंख; धनम्-जयः-धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन पौण्ड्रम्-पौण्ड्र नामक शंख; दध्मौ–बजाया; महा-शङ्ख-भीषण शंख; भीम-कर्मा-दुस्साधय कर्म करने वाला; वृक-उदरः-अतिभोजी भीम ने।
Hindi translation : ऋषीकेश भगवान् कृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया, अर्जुन ने देवदत्त शंख तथा अतिभोजी एवं अति दुष्कर कार्य करने वाले भीम ने पौण्डू नामक भीषण शंख बजाया।
अनन्य भगवद्भक्ति का महत्व
मुख्य बिन्दु
- भगवद्भक्ति की अनन्यता का महत्व
- भक्ति का शाश्वत स्वरूप
- भगवान के प्रति समर्पण की आवश्यकता
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट किया है कि उनकी अनन्य भक्ति ही मनुष्य को संसार के बन्धनों से मुक्त करा सकती है। यही कारण है कि वे अर्जुन को भगवद्भक्ति के महत्व को समझाते हैं।
ऋषीकेश एतन्न साम्ये स्थितो नश्वरेऽसौ न विनश्यति। – श्रीमद्भगवद्गीता
भक्ति की अनन्यता
इस श्लोक में श्रीकृष्ण के लिए “ऋषीकेश” शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ मन और इन्द्रियों का स्वामी है। श्रीकृष्ण स्वयं अपनी और समस्त प्राणियों के मन और इन्द्रियों के परम स्वामी हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने धरती पर अपनी अद्भुत लीलाएं करते समय भी अपने मन और इन्द्रियों को पूर्ण नियंत्रण में रखा।
वे अनन्य भक्ति की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि जो पुरुष अनन्य भाव से उनकी भक्ति करता है, वह न तो नश्वर है और न ही कभी विनाश को प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट है कि केवल अनन्य भक्ति ही मनुष्य को मोक्ष प्रदान कर सकती है।
भक्ति का शाश्वत स्वरूप
भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति उनकी अनन्य भक्ति करता है, वह न तो नश्वर (क्षणभंगुर) है और न ही कभी विनाश को प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट है कि भक्ति का स्वरूप शाश्वत है और वह मनुष्य को संसार के चक्र से मुक्त करा सकती है।
भगवान यह भी कहते हैं कि जो व्यक्ति उनकी शरण में आता है, उसके पाप नष्ट हो जाते हैं और ज्ञान का प्रकाश उसके हृदय में जागृत हो जाता है।
विद्यामृतम् अशनुते विद्यात्मनी विनष्यति। – श्रीमद्भगवद्गीता
भगवान के प्रति समर्पण
अनन्य भक्ति का अर्थ है भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण। यह समर्पण केवल बाह्य क्रियाओं से नहीं होता, बल्कि मन, बुद्धि और अंतरात्मा से होता है। जब मनुष्य अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को भगवान के चरणों में समर्पित कर देता है, तभी वह उनकी कृपा का पात्र बन सकता है।
भक्ति के प्रकारविवरणज्ञानमय भक्तिभगवान के स्वरूप, गुणों और लीलाओं का ज्ञान प्राप्त करनाकर्ममय भक्तिभगवान के लिए निष्काम कर्म करनाप्रेममय भक्तिभगवान के प्रति अनन्य प्रेम और आसक्ति रखना
उपसंहार
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट किया है कि उनकी अनन्य भक्ति ही मनुष्य को संसार के बन्धनों से मुक्त करा सकती है। यह भक्ति न केवल बाह्य क्रियाओं से होती है, बल्कि मन, बुद्धि और अंतरात्मा से भी होती है। जब मनुष्य अपना सर्वस्व भगवान को समर्पित कर देता है, तभी वह उनकी कृपा का पात्र बन सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।