श्रीभगवानुवाच। प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥55॥ श्रीभगवान्-उवाच-परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहा; प्रजहाति–परित्याग करता है; यदा-जब; कामान्–स्वार्थयुक्त; सर्वान् सभी; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; मनः-गतान्-मन की; आत्मनि-आत्मा की; एव-केवल; आत्मना-शुद्ध मन से; तुष्टः-सन्तुष्ट, स्थितप्रज्ञः-स्थिर बुद्धि युक्त; तदा-उस समय, तब; उच्यत–कहा जाता है। Hindi translation: परम प्रभु श्रीकृष्ण कहते हैं: हे पार्थ! जब कोई मनुष्य स्वार्थयुक्त कामनाओं और मन को दूषित करने वाली इन्द्रिय तृप्ति से संबंधित कामनाओं का परित्याग कर देता है और आत्मज्ञान को अनुभव कर संतुष्ट हो जाता है तब ऐसे मानव को दिव्य चेतना में स्थित कहा जा सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण का आत्मज्ञान: लोकातीत अवस्था की प्राप्ति
आत्मा का स्वभाव और भौतिक आकर्षण
श्रीकृष्ण बताते हैं कि आत्मा स्वाभाविक रूप से अपने मूल स्रोत, परमात्मा की ओर आकर्षित होती है। यह एक प्राकृतिक नियम है, जैसे पत्थर पृथ्वी की ओर गिरता है। हमारी आत्मा भगवान का अंश है, जो परम आनंद का स्वरूप है।
आत्मानंद बनाम भौतिक सुख
- दिव्य प्रेम: जब आत्मा भगवान से आनंद प्राप्त करने का प्रयास करती है।
- तृष्णा: जब आत्मा अज्ञानतावश शरीर से प्राप्त सुखों का भोग करना चाहती है।
संसार: एक मृगतृष्णा
धार्मिक ग्रंथों में संसार को मृगतृष्णा के रूप में वर्णित किया गया है। यह एक ऐसा भ्रम है जो हमें सतत सुख की खोज में भटकाता रहता है।
मृगतृष्णा का उदाहरण
जैसे रेगिस्तान में प्यासा हिरण मृगजल के पीछे भागता है, वैसे ही मनुष्य भी भौतिक सुखों के पीछे भागता रहता है। लेकिन यह सुख हमेशा अप्राप्य रहता है।
तृष्णा का अंतहीन चक्र
गरुड़ पुराण में वर्णित है कि मनुष्य की तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती:
चक्रधरोऽपि सुरत्वं सुरत्वलाभे सकलसुरपतित्वम्।
भवितुं सुरपतिरूवंगतित्वं तथापि न निवर्तते तृष्णा।।
तृष्णा के स्तर
स्तर | इच्छा |
---|---|
1 | राजा से सम्राट बनना |
2 | सम्राट से देवता बनना |
3 | देवता से इंद्र बनना |
4 | इंद्र से ब्रह्मा बनना |
लोकातीत अवस्था की प्राप्ति
जब मनुष्य अपने मन को भौतिक लालसाओं से मुक्त कर लेता है, तब वह आत्मा के आंतरिक सुख की अनुभूति करता है और लोकातीत अवस्था प्राप्त करता है।
कठोपनिषद् का संदेश
कठोपनिषद् में कहा गया है:
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।
अथ मोऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ।।
इसका अर्थ है कि जब मनुष्य अपने मन से सभी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं को त्याग देता है, तब वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर भगवान के समान हो जाता है।
श्रीकृष्ण का उपदेश: लोकातीत अवस्था
श्रीकृष्ण कहते हैं कि लोकातीत अवस्था में स्थित मनुष्य वह है जो:
- अपनी कामनाओं का त्याग कर चुका है
- इंद्रिय तृप्ति से ऊपर उठ चुका है
- आत्मसंतुष्ट रहता है
निष्कर्ष
श्रीमद्भगवद्गीता का यह संदेश हमें सिखाता है कि वास्तविक सुख और शांति भौतिक वस्तुओं में नहीं, बल्कि आत्मज्ञान में निहित है। जब हम अपनी आत्मा के स्वभाव को समझते हैं और भौतिक आकर्षणों से ऊपर उठते हैं, तभी हम लोकातीत अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। यह एक चुनौतीपूर्ण मार्ग है, लेकिन यही वह मार्ग है जो हमें सच्चे आनंद और शाश्वत शांति की ओर ले जाता है।