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भगवद गीता: अध्याय 3, श्लोक 25

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥25॥


सक्ताः-आसक्त; कर्मणि-नियत कर्तव्य; अविद्वांसः-अज्ञानी; यथा-जिस प्रकार से; कुर्वन्ति-करते है; भारत-भरतवंशी, अर्जुन कुर्यात्-करना चाहिएविद्वान-बुद्धिमान; तथा उसी प्रकार से; असक्तः-अनासक्त; चिकीर्षुः-इच्छुक; लोकसंग्रहम्-लोक कल्याण के लिए।

Hindi translation:
हे भरतवंशी! जैसे अज्ञानी लोग फल की आसक्ति की कामना से कर्म करते हैं, उसी प्रकार बुद्धिमान मनुष्यों को लोगों को उचित मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करने हेतु अनासक्त रहकर कर्म करना चाहिए।

लोकसंग्रह: समाज कल्याण का मार्ग

भगवद्गीता हमें जीवन जीने का एक महत्वपूर्ण मार्ग दिखाती है। इस महान ग्रंथ में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को न केवल व्यक्तिगत उत्थान का मार्ग दिखाया, बल्कि समाज कल्याण के महत्व पर भी जोर दिया। आइए, इस विषय को गहराई से समझें।

लोकसंग्रह की अवधारणा

श्रीकृष्ण ने गीता के तीसरे अध्याय में ‘लोकसंग्रह’ शब्द का प्रयोग किया है। यह शब्द दो भागों से मिलकर बना है – ‘लोक’ यानी समाज या जनता, और ‘संग्रह’ यानी कल्याण या हित। इस प्रकार, लोकसंग्रह का अर्थ है समाज का कल्याण या जनहित।

श्लोक 3.20 का महत्व

लोकसंग्रहमेवापि, सम्पश्यन्कुर्तमर्हसी

इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि उसे अपने कर्म लोककल्याण की भावना से करने चाहिए। यहाँ ‘लोकसंग्रह’ शब्द का प्रयोग विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।

श्लोक 3.25 में ‘लोकसंग्रह चिकीर्षुः’

इस श्लोक में श्रीकृष्ण फिर से लोकसंग्रह पर बल देते हैं:

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥

यहाँ ‘लोकसंग्रह चिकीर्षुः’ का अर्थ है ‘विश्व के कल्याण की इच्छा रखने वाला’।

ज्ञानी और अज्ञानी का व्यवहार

श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में ज्ञानी और अज्ञानी व्यक्तियों के व्यवहार की तुलना की है।

अज्ञानी का व्यवहार

  1. शारीरिक चेतना में रहते हैं
  2. सांसारिक सुखों में आसक्त होते हैं
  3. वैदिक रीतियों में विश्वास रखते हैं
  4. धार्मिक ग्रंथों का सैद्धांतिक ज्ञान रखते हैं
  5. भगवद्प्राप्ति के परम लक्ष्य को नहीं समझते

ज्ञानी का आदर्श व्यवहार

  1. लोककल्याण के लिए कर्म करते हैं
  2. भौतिक सुख की अपेक्षा नहीं रखते
  3. समाज के लिए आदर्श स्थापित करते हैं
  4. निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं

धार्मिक कर्मकांडों का महत्व

श्रीकृष्ण यह भी समझाते हैं कि धार्मिक कर्मकांड क्यों महत्वपूर्ण हैं:

  1. अज्ञानी व्यक्तियों के लिए मार्गदर्शक के रूप में कार्य करते हैं
  2. व्यक्ति को सही दिशा में रखते हैं
  3. भक्ति के सिद्धांतों की ओर ले जाते हैं

श्रीमद्भागवतम् का संदर्भ

श्रीमद्भागवतम् में इस विषय पर एक महत्वपूर्ण श्लोक है:

तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विघेत यावता।
मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ।।
(श्रीमद्भागवतम् 11.20.9)

इसका अर्थ है कि मनुष्य को तब तक अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए जब तक उसमें भगवान के प्रति प्रेम और भौतिक सुखों से विरक्ति उत्पन्न न हो जाए।

अर्जुन की विशेष परिस्थिति

श्रीकृष्ण अर्जुन की विशेष परिस्थिति को भी ध्यान में रखते हैं:

  1. अर्जुन एक क्षत्रिय है
  2. वह धर्मयुद्ध में खड़ा है
  3. उसका कर्तव्य समाज की रक्षा करना है

इस संदर्भ में, अर्जुन का योद्धा धर्म का पालन करना न केवल उसका व्यक्तिगत कर्तव्य है, बल्कि समाज कल्याण का एक माध्यम भी है।

लोकसंग्रह के लाभ

लोकसंग्रह की भावना से किए गए कर्मों के कई लाभ हैं:

  1. समाज का समग्र विकास
  2. नैतिक मूल्यों का संरक्षण
  3. आध्यात्मिक उन्नति
  4. सामाजिक सद्भाव
  5. व्यक्तिगत संतुष्टि

निष्कर्ष

श्रीकृष्ण का संदेश स्पष्ट है – चाहे कोई ज्ञानी हो या अज्ञानी, उसे अपने कर्तव्यों का पालन लोककल्याण की भावना से करना चाहिए। यह न केवल समाज के लिए लाभदायक है, बल्कि व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में भी सहायक है।

भगवद्गीता हमें सिखाती है कि हमारा जीवन केवल अपने लिए नहीं, बल्कि समूचे समाज के कल्याण के लिए है। जब हम इस भावना से कर्म करते हैं, तो हम न केवल अपना, बल्कि पूरे समाज का उत्थान करते हैं।

आइए, हम सब मिलकर लोकसंग्रह के इस महान आदर्श को अपने जीवन में उतारें और एक बेहतर समाज का निर्माण करें।

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