न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वानयुक्तः समाचरन् ॥26॥
न-नहीं; बुद्धिभेदम् बुद्धि में मतभेद; जनयेत् उत्पन्न होना चाहिए; अज्ञानाम्-अज्ञानियों का; कर्म-संङ्गिनाम्-कर्म-फलों में आसक्त; जोषयेत्-प्रेरित करना चाहिए; सर्व-सारे; कर्माणि-कर्म; विद्वान्–ज्ञानवान व्यक्ति; युक्तः-प्रबुद्ध, समाचरन्-आचरण करते हुए।
Hindi Translation:ज्ञानवान मनुष्यों को चाहिए कि वे अज्ञानी लोगों को जिनकी आसक्ति सकाम कर्म करने में रहती है, उन्हें कर्म करने से रोक कर उनकी बुद्धि में मतभेद उत्पन्न न करें अपितु स्वयं ज्ञानयुक्त होकर अपने कार्य करते हुए उन अज्ञानी लोगों को भी अपने नियत कर्म करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
महापुरुषों का दायित्व: समाज के प्रति एक महत्वपूर्ण कर्तव्य
प्रस्तावना
महापुरुषों का जीवन और उनके कार्य समाज के लिए एक आदर्श के रूप में देखे जाते हैं। उनके व्यवहार और विचारों का प्रभाव न केवल उनके समकालीन समाज पर पड़ता है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है। इसी कारण से, श्रीकृष्ण ने गीता में महापुरुषों के दायित्व पर विशेष जोर दिया है।
महापुरुषों का प्रभाव
समाज पर प्रभाव
महापुरुषों के कार्य और विचार समाज के विभिन्न वर्गों पर गहरा प्रभाव डालते हैं। लोग उनके जीवन से प्रेरणा लेते हैं और उनके बताए मार्ग पर चलने का प्रयास करते हैं। इसलिए, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि महापुरुष अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहें।
युवाओं पर प्रभाव
युवा वर्ग विशेष रूप से महापुरुषों से प्रभावित होता है। वे उनके जीवन से सीख लेते हैं और अपने जीवन में उन मूल्यों को अपनाने का प्रयास करते हैं। इसलिए, महापुरुषों का दायित्व है कि वे अपने आचरण और विचारों द्वारा युवाओं को सही दिशा दिखाएं।
श्रीकृष्ण का आह्वान
श्रीकृष्ण ने गीता में महापुरुषों के दायित्व पर विशेष ध्यान दिया है। उन्होंने कहा है:
ज्ञानी पुरुष कोई ऐसा कार्य न करें या कुछ ऐसा न कहें कि जो अज्ञानी लोगों को अधोपतन की ओर ले जाए।
यह कथन महापुरुषों के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करता है। इसका अर्थ है कि ज्ञानी व्यक्तियों को हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि उनके कार्य और शब्द किसी को गलत मार्ग पर न ले जाएं।
ज्ञानी और अज्ञानी का संबंध
करुणा का महत्व
ज्ञानी व्यक्तियों का कर्तव्य है कि वे अज्ञानी लोगों के प्रति करुणा भाव रखें। लेकिन यह करुणा केवल भावनात्मक स्तर पर नहीं होनी चाहिए, बल्कि व्यावहारिक रूप से भी प्रकट होनी चाहिए।
ज्ञान का प्रसार
कुछ लोग मानते हैं कि ज्ञानी व्यक्तियों को अज्ञानियों को सीधे दिव्यज्ञान प्रदान करना चाहिए। लेकिन श्रीकृष्ण इस विचार को खारिज करते हैं। वे कहते हैं:
न बुद्धिभेदं जनयेत्
इसका अर्थ है कि ज्ञानी व्यक्तियों को अज्ञानियों के मन में भ्रम पैदा नहीं करना चाहिए।
अज्ञानियों की स्थिति
दो विकल्प
प्रायः लौकिक चेतना युक्त लोगों के पास दो विकल्प होते हैं:
- सुखद परिणाम की इच्छा से कड़ा परिश्रम करना
- यह मानकर कर्म त्याग देना कि सभी कार्य कठिन और कष्टदायक हैं
श्रेष्ठ मार्ग
इन दोनों विकल्पों में, फल की इच्छा से कर्म करना पलायनवादी दृष्टिकोण से बेहतर है। यह विचार महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अज्ञानी व्यक्तियों को कर्म के मार्ग पर बने रहने के लिए प्रोत्साहित करता है।
ज्ञानियों का कर्तव्य
सावधानीपूर्वक मार्गदर्शन
वैदिक ज्ञान के विद्वानों का कर्तव्य है कि वे अज्ञानियों को सावधानीपूर्वक और ध्यान से अपने कर्मों का पालन करने के लिए प्रेरित करें। यह एक संतुलित दृष्टिकोण है जो अज्ञानियों को उनके स्तर पर समझने और कार्य करने में मदद करता है।
विक्षुब्धता से बचाव
यदि अज्ञानी लोगों का मन विक्षुब्ध और अस्थिर हो जाता है, तो उनका कर्म करने से विश्वास उठ सकता है। इसलिए, ज्ञानी व्यक्तियों को ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं करनी चाहिए जो अज्ञानियों के मन में भ्रम या अस्थिरता पैदा करे।
ज्ञानी और अज्ञानी में अंतर
कर्म का महत्व
यदि ज्ञानी और अज्ञानी दोनों वैदिक कर्म करते हैं, तो फिर उनके बीच क्या अंतर रह जाता है? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसे श्रीकृष्ण अगले श्लोकों में स्पष्ट करते हैं।
मानसिक स्थिति का प्रभाव
वास्तविक अंतर कर्म में नहीं, बल्कि मानसिक स्थिति में निहित है। ज्ञानी व्यक्ति अनासक्त भाव से कर्म करता है, जबकि अज्ञानी फल की इच्छा से प्रेरित होता है।
निष्कर्ष
महापुरुषों का दायित्व अत्यंत महत्वपूर्ण और जटिल है। उन्हें न केवल अपने कार्यों और विचारों का ध्यान रखना होता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होता है कि उनके कार्य समाज के लिए लाभदायक हों। श्रीकृष्ण के उपदेश हमें यह समझने में मदद करते हैं कि कैसे ज्ञानी व्यक्तियों को अज्ञानियों के प्रति व्यवहार करना चाहिए।
यह एक संतुलित दृष्टिकोण है जो न केवल व्यक्तिगत विकास पर जोर देता है, बल्कि सामूहिक उत्थान की भी बात करता है। इस प्रकार, महापुरुषों का दायित्व केवल उनके अपने जीवन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समग्र समाज के कल्याण से जुड़ा हुआ है।
महापुरुषों के गुण और दायित्व: एक तुलनात्मक अध्ययन
निम्नलिखित तालिका महापुरुषों के मुख्य गुणों और उनके संबंधित दायित्वों को दर्शाती है:
गुण | दायित्व |
---|---|
ज्ञान | समाज को मार्गदर्शन प्रदान करना |
करुणा | अज्ञानियों के प्रति सहानुभूति रखना |
धैर्य | कठिन परिस्थितियों में भी स्थिर रहना |
नैतिकता | उच्च नैतिक मानकों का पालन करना |
दूरदर्शिता | समाज के दीर्घकालिक हित को ध्यान में रखना |
निःस्वार्थता | व्यक्तिगत लाभ से ऊपर उठकर कार्य करना |
साहस | सत्य और न्याय के लिए खड़े होना |
यह तालिका दर्शाती है कि महापुरुषों के गुण और उनके दायित्व एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। प्रत्येक गुण एक विशिष्ट दायित्व को जन्म देता है, जो समाज के कल्याण के लिए महत्वपूर्ण है।
अंतिम विचार
महापुरुषों का दायित्व एक जटिल और चुनौतीपूर्ण कार्य है। यह केवल व्यक्तिगत उत्कृष्टता तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें समाज के प्रति एक गहरी प्रतिबद्धता भी शामिल है। श्रीकृष्ण के उपदेश हमें यह समझने में मदद करते हैं कि कैसे ज्ञान और कर्म को संतुलित किया जा सकता है, और कैसे महापुरुष समाज के विभिन्न वर्गों के बीच एक सेतु के रूप में कार्य कर सकते हैं।
यह महत्वपूर्ण है कि हम न केवल महापुरुषों की प्रशंसा करें, बल्कि उनके जीवन से सीखें और उनके बताए मार्ग पर चलने का प्रयास करें। इस प्रकार, हम न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन को समृद्ध कर सकते हैं, बल्कि एक बेहतर और अधिक न्यायसंगत समाज के निर्माण में भी योगदान दे सकते हैं।
अंत में, यह कहा जा सकता है कि महापुरुषों का दायित्व एक ऐसा विषय है जो हमेशा प्रासंगिक रहेगा। जैसे-जैसे समाज विकसित होता है और नई चुनौतियाँ सामने आती हैं, महापुरुषों की भूमिका भी बदलती रहेगी। लेकिन उनके मूल गुण – ज्ञान, करुणा, और निःस्वार्थ सेवा – हमेशा महत्वपूर्ण रहेंगे। यही गुण हैं जो एक सामान्य व्यक्ति को महापुरुष बनाते हैं, और यही गुण हैं जो समाज को आगे ले जाने में मदद करते हैं।