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भगवद गीता: अध्याय 5, श्लोक 5

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सायं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥5॥

https://www.holy-bhagavad-gita.org/public/audio/005_005.mp3यत-क्या; साङ्ख्यैः -कर्म संन्यास के अभ्यास द्वारा प्राप्यते-प्राप्त किया जाता है। स्थानम्-स्थान; तत्-वह; योगैः-भक्ति युक्त कर्म द्वारा; अपि-भी; गम्यते-प्राप्त करता है; एकम्-एक; सांख्यम्-कर्म का त्यागः च-तथा; योगम्-कर्मयोगः च-तथा; यः-जो; पश्यति-देखता है; स:-वह; पश्चति-वास्तव में देखता है।

Hindi translation: परमेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म संन्यास के माध्यम से जो प्राप्त होता है उसे भक्ति युक्त कर्मयोग से भी प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार जो कर्म संन्यास और कर्मयोग को एक समान देखते हैं वही वास्तव में सभी वस्तुओं को यथावत रूप में देखते हैं।

आध्यात्मिकता में मन की भूमिका: बाह्य क्रियाओं से परे

प्रस्तावना

आध्यात्मिकता एक ऐसा विषय है जो हमारे जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है। यह केवल धार्मिक अनुष्ठानों या तीर्थ यात्राओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारी मानसिक स्थिति और दृष्टिकोण से गहराई से जुड़ा हुआ है। इस ब्लॉग में हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि आध्यात्मिकता में मन की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है और कैसे हमारी मनोवृत्ति हमारे आध्यात्मिक विकास को निर्धारित करती है।

मन की शक्ति: आध्यात्मिकता का मूल

मन का महत्व

मन हमारे अस्तित्व का केंद्र है। यह न केवल हमारे विचारों और भावनाओं का स्रोत है, बल्कि यह हमारी आध्यात्मिक यात्रा का मार्गदर्शक भी है। प्राचीन वैदिक ग्रंथों में मन की महत्ता पर विशेष बल दिया गया है।

मन: बंधन और मोक्ष का कारण

पंचदशी में कहा गया है:

मन एव मनुष्याणां कारणंबन्ध मोक्षयोः।

अर्थात, “मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है।” यह श्लोक स्पष्ट करता है कि हमारा मन ही हमें संसार के बंधनों में बांधता है और वही हमें मुक्ति की ओर ले जाता है।

बाह्य क्रियाएँ बनाम आंतरिक भाव

स्थान का महत्व या मन की स्थिति?

अक्सर लोग यह मानते हैं कि किसी पवित्र स्थान पर रहने से ही आध्यात्मिक लाभ मिलता है। लेकिन क्या यह सच है?

वृंदावन में शरीर, कोलकाता में मन

यदि कोई व्यक्ति वृंदावन जैसे पवित्र स्थान पर रह रहा है, लेकिन उसका मन कोलकाता के रसगुल्ले में लगा है, तो क्या वह वास्तव में वृंदावन में है? आध्यात्मिक दृष्टि से, वह व्यक्ति कोलकाता में ही माना जाएगा।

कोलकाता में शरीर, वृंदावन में मन

इसके विपरीत, यदि कोई व्यक्ति कोलकाता की भीड़-भाड़ में रहता है, लेकिन उसका मन वृंदावन की दिव्य भूमि में लीन है, तो वह वृंदावन के आध्यात्मिक लाभों को प्राप्त कर सकता है।

शारीरिक स्थितिमानसिक स्थितिवास्तविक आध्यात्मिक स्थिति
वृंदावनकोलकाताकोलकाता
कोलकातावृंदावनवृंदावन

मनोभाव और चेतना का स्तर

मनोभावों का प्रभाव

सभी वैदिक ग्रंथों में यह उल्लेख मिलता है कि हमारे मनोभावों के अनुसार ही हमारी चेतना का स्तर निर्धारित होता है। यह एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो हमें बताता है कि हमारी आंतरिक स्थिति हमारे आध्यात्मिक विकास में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज का दृष्टिकोण

जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज ने इस सिद्धांत को अपने भक्ति शतक में इस प्रकार व्यक्त किया है:

बंधन और मोक्ष का, कारण मनहि बखान।
याते कौनिउ भक्ति करु, करु मन ते हरिध्यान।।
(भक्ति शतक-19)

इसका अर्थ है, “बंधन और मोक्ष मन की दशा पर निर्भर करते हैं। तुम चाहे जो भी भक्ति का साधन चयन करो परंतु मन को भगवान के स्मरण में लीन रखो।”

कर्म संन्यास और कर्मयोग: एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण

बाह्य अंतर और आंतरिक समानता

कर्म संन्यास और कर्मयोग दो ऐसे मार्ग हैं जो प्रथम दृष्टया बहुत अलग लगते हैं। कर्म संन्यासी बाह्य रूप से सांसारिक कर्मों का त्याग कर देता है, जबकि कर्मयोगी इन्हीं कर्मों को करते हुए आध्यात्मिक उन्नति करता है।

ज्ञानियों का दृष्टिकोण

जो लोग आध्यात्मिकता के गहन रहस्यों को समझते हैं, वे इन दोनों मार्गों में कोई मौलिक अंतर नहीं देखते। उनके अनुसार, कर्म संन्यासी और कर्मयोगी दोनों ही अपने मन को भगवान की भक्ति में तल्लीन कर लेते हैं, और इसलिए वे दोनों आंतरिक चेतना की दृष्टि में समान हैं।

आधुनिक जीवन में आध्यात्मिकता का अभ्यास

दैनिक जीवन में मन का नियंत्रण

आज के व्यस्त जीवन में, जहां हम अक्सर भौतिक दुनिया की चकाचौंध में खो जाते हैं, यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम अपने मन को नियंत्रित करें और उसे आध्यात्मिक चिंतन में लगाएं।

व्यावहारिक सुझाव

  1. नियमित ध्यान अभ्यास
  2. सकारात्मक विचारों का पोषण
  3. सेवा भाव का विकास
  4. प्रकृति के साथ संपर्क
  5. आध्यात्मिक साहित्य का अध्ययन

निष्कर्ष

आध्यात्मिकता का सार हमारे मन की स्थिति में निहित है, न कि बाहरी क्रियाकलापों में। चाहे हम किसी पवित्र स्थान पर हों या व्यस्त शहर में, हमारा आध्यात्मिक विकास इस बात पर निर्भर करता है कि हम अपने मन को कैसे नियंत्रित करते हैं और उसे किस दिशा में ले जाते हैं।

जैसा कि जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज ने कहा है, हमें अपने मन को भगवान के स्मरण में लीन रखना चाहिए, चाहे हम किसी भी प्रकार की भक्ति या साधना करें। यही वह कुंजी है जो हमें आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाएगी और अंततः मोक्ष की प्राप्ति करवाएगी।

इस प्रकार, हम देख सकते हैं कि आध्यात्मिकता का वास्तविक अर्थ बाहरी दिखावे या क्रियाकलापों में नहीं, बल्कि हमारे मन की शुद्धता और भगवान के प्रति हमारे समर्पण में निहित है। यह समझ हमें न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन में, बल्कि समाज और विश्व के प्रति हमारे दृष्टिकोण में भी एक गहरा परिवर्तन ला सकती है।

आइए, हम सब मिलकर इस गहन आध्यात्मिक सत्य को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें और अपने मन को उस परम सत्य की ओर मोड़ें जो हमारे अस्तित्व का मूल है। यही सच्ची आध्यात्मिकता है, और यही हमारे जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए।

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