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भगवद गीता: अध्याय 6, श्लोक 21

सुखमात्यन्तिकं यत्तबुद्धिग्राह्ममतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥21॥


सुखम्-सुख; आत्यन्तिकम्-असीम; यत्-जो; तत्-वह; बुद्धि-बुद्धि द्वारा; ग्राह्मम्-ग्रहण करना; अतीन्द्रियम्-इन्द्रियातीत; वेत्ति-जानता है; यत्र-जिसमें; न कभी नहीं; च और; एव–निश्चय ही; अयम्-वह; स्थितः-स्थित; चलति–विपथ न होना; तत्त्वतः-परम सत्य से;

Hindi translation: योग में चरम आनन्द की अवस्था को समाधि कहते हैं जिसमें मनुष्य असीम दिव्य आनन्द प्राप्त करता है और इसमें स्थित मनुष्य परम सत्य के पथ से विपथ नहीं होता।

सुख की लालसा: आत्मा का स्वभाव और परमानंद की प्राप्ति

प्रस्तावना

मानव जीवन का मूल उद्देश्य सुख और आनंद की प्राप्ति है। हमारी हर गतिविधि, हर प्रयास इसी दिशा में केंद्रित होता है। लेकिन क्या हम वास्तव में जानते हैं कि सच्चा सुख क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है? आइए इस गहन विषय पर विस्तार से चर्चा करें।

आत्मा का स्वभाव: सुख की लालसा

सुख की लालसा करना आत्मा का स्वभाव है। यह कोई संयोग नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व का मूल है। इसका कारण है:

हम आनन्द के महासागर भगवान के अणु अंश हैं।

यह एक गहन दार्शनिक सिद्धांत है जो हमारे अस्तित्व के मूल को समझाता है। हम भगवान के छोटे से अंश हैं, और इसलिए उनके गुणों को अपने में समाहित किए हुए हैं। जैसे समुद्र का एक बूंद भी समुद्र के सभी गुणों को धारण करता है, वैसे ही हम भी भगवान के आनंदमय स्वरूप को अपने में समेटे हुए हैं।

वैदिक ग्रंथों में आनंद का वर्णन

वैदिक ग्रंथों में भगवान के आनंदमय स्वरूप का वर्णन अनेक स्थानों पर मिलता है। कुछ प्रमुख उदाहरण इस प्रकार हैं:

  1. तैत्तिरीयोपनिषद् (2.7):

रसो वै सः। रसँ ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति।

“भगवान स्वयं आनन्द है। जीवात्मा उसे पाकर आनन्दमयी हो जाती है।”

  1. ब्रह्मसूत्र (1.1.12):

“आनन्दमयोऽभ्यासात्”

“भगवान परमानंद का वास्तविक स्वरूप है”

  1. श्रीमद्भागवतम् (10.13.54):

सत्यज्ञानानन्तानन्दमात्रैकरसमूर्तयः।

“भगवान का दिव्य स्वरूप सत्-चित्-आनन्द से निर्मित है।”

  1. रामचरितमानस:

आनंद सिंधु मध्य तव वासा। बिनु जाने कत मरसि पियासा॥

“आनन्द के महासागर भगवान, जो तुम्हारे भीतर बैठे हैं उन्हें जाने बिना आनन्द प्राप्ति की तुम्हारी प्यास की तृप्ति कैसे हो सकती है।”

सुख की खोज: एक अनंत यात्रा

हम युगों से पूर्ण आनन्द प्राप्त करना चाह रहे हैं। यह खोज हमारी हर गतिविधि का मूल प्रेरक है। लेकिन क्या हम वास्तव में इस खोज में सफल हो पाए हैं?

भौतिक सुख बनाम आध्यात्मिक आनंद

हमारे जीवन में दो प्रकार के सुख की अनुभूति होती है:

  1. भौतिक सुख: इंद्रियों द्वारा प्राप्त किया जाने वाला सुख
  2. आध्यात्मिक आनंद: आत्मा द्वारा अनुभव किया जाने वाला परम सुख

इन दोनों के बीच के अंतर को समझना महत्वपूर्ण है:

भौतिक सुखआध्यात्मिक आनंद
अस्थायीस्थायी
सीमितअसीमित
बाहरी वस्तुओं पर निर्भरआंतरिक अनुभूति
तृप्ति क्षणिकपूर्ण संतुष्टि
इच्छाओं को बढ़ाता हैइच्छाओं का शमन करता है

भौतिक सुख की सीमाएं

हालाँकि तृप्ति के विषयों से मन और इन्द्रियों को वास्तविक सुख के छायादार प्रतिबिम्ब की ही अनुभूति होती है।

यह एक गहन अवधारणा है। भौतिक सुख वास्तविक आनंद का केवल एक आभास है, जैसे चांदनी रात में तालाब में दिखने वाला चंद्रमा का प्रतिबिंब। यह सुंदर और आकर्षक हो सकता है, लेकिन यह असली चंद्रमा नहीं है।

इसी प्रकार, इंद्रिय तृप्तियाँ हमारी आत्मा को संतुष्ट करने में असफल होती हैं। वे क्षणिक सुख दे सकती हैं, लेकिन वह स्थायी नहीं होता। इसलिए हम हमेशा और अधिक की तलाश में रहते हैं।

परमानंद की प्राप्ति: योग और समाधि

तो फिर सच्चे सुख को कैसे पाया जा सकता है? वैदिक ग्रंथों में इसका उत्तर दिया गया है:

जब मन भगवान में एकनिष्ठ हो जाता है तब आत्मा अकथनीय और परम आनन्द प्राप्त करती है जोकि इन्द्रियों की परिधि से परे होता है।

समाधि: परम आनंद की अवस्था

वैदिक ग्रंथों में योग की इस उच्चतम अवस्था को समाधि कहा जाता है। समाधि वह स्थिति है जहां मन पूरी तरह से शांत और एकाग्र हो जाता है, और आत्मा अपने मूल स्वरूप में स्थित हो जाती है।

महर्षि पतंजलि ने अपने योग दर्शन में कहा है:

समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् ।।
(पंतजलि योग दर्शन-2.45)

“समाधि में सफलता के लिए परमात्मा की शरणागति प्राप्त करो।”

समाधि की विशेषताएं

समाधि की अवस्था में निम्नलिखित अनुभूतियां होती हैं:

  1. पूर्ण तृप्ति: आत्मा को पूर्ण संतोष की अनुभूति होती है।
  2. इच्छाओं का शमन: कोई इच्छा शेष नहीं रहती।
  3. स्थिरता: आत्मा दृढ़ता से परमसत्य में स्थित हो जाती है।
  4. निरंतरता: यह अवस्था क्षणिक नहीं, बल्कि निरंतर होती है।

योग साधना: परमानंद की ओर मार्ग

परमानंद की प्राप्ति के लिए योग साधना एक प्रभावी मार्ग है। यहां कुछ महत्वपूर्ण चरण दिए गए हैं:

  1. ध्यान: नियमित ध्यान अभ्यास से मन शांत और एकाग्र होता है।
  2. भक्ति: भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव विकसित करें।
  3. कर्म योग: निष्काम भाव से कर्म करें।
  4. ज्ञान योग: आत्मा और परमात्मा के संबंध को समझें।
  5. प्राणायाम: श्वास नियंत्रण से मन पर नियंत्रण पाएं।

साधना में आने वाली बाधाएं

योग साधना का मार्ग सरल नहीं है। इसमें कई बाधाएं आ सकती हैं:

  1. मन की चंचलता: मन को एकाग्र करने में कठिनाई।
  2. भौतिक आकर्षण: संसार के मोह से मुक्त होने में कठिनाई।
  3. अधैर्य: तत्काल परिणाम न मिलने पर निराशा।
  4. अज्ञान: आत्मा के वास्तविक स्वरूप को न समझ पाना।

इन बाधाओं को दूर करने के लिए धैर्य, दृढ़ संकल्प और गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है।

निष्कर्ष: सच्चे सुख की ओर

सुख की लालसा हमारे अस्तित्व का मूल है, क्योंकि हम स्वयं आनंद के स्रोत भगवान के अंश हैं। भौतिक सुख हमें क्षणिक संतोष दे सकता है, लेकिन वह हमारी आत्मा की गहरी प्यास को नहीं बुझा सकता। सच्चा और स्थायी आनंद केवल आत्म-साक्षात्कार और भगवान से एकाकार होने में ही निहित है।

योग साधना हमें इस परम लक्ष्य तक पहुंचने का मार्ग दिखाती है। समाधि की अवस्था में, हम उस अकथनीय आनंद का अनुभव करते हैं जो हमारा वास्तविक स्वरूप है। यह यात्रा कठिन हो सकती है, लेकिन यह हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य है।

अंत में, हमें याद रखना चाहिए कि सच्चा सुख हमारे भीतर ही छिपा है। जैसा कि रामचरितमानस में कहा गया है:

आनंद सिंधु मध्य तव वासा। बिनु जाने कत मरसि पियासा॥

आइए, हम सब अपने भीतर छिपे इस आनंद के महासागर को खोजने की यात्रा पर निकलें। यही हमारे जीवन का सच्चा उद्देश्य और परम लक्ष्य है।

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